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Showing posts from 2015

अलविदा से पहले कुछ कहना है

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प्रिय शचीन्द्र , तुम्हारे ब्लॉग पर नई पोस्ट पढ़ के झटका लगा की तुम ब्लॉग से छुट्टी ले रहे हों।इस महानगर में कमरे के किसी कोने में तुम जिन सपनों को अपने ब्लॉग पर उतार लेते हो,मैं हमेशा से उसका मुरीद हूँ । तुमने मुझे वो अंगूठी फेंकनें को कहा था ना, शायद वो मैं पूरी ज़िंदगी न फेंक पाऊँ ।लेकिन तुम इरादों के पक्के हो तुम इस नई अंगूठी को फेंकना चाह ही रहे हो तो ठीक है।हाँ तुम्हारें सार्थक ना होने का गुस्सा भी नजर आता हैं।लेकिन तुम्हारी परिधि मुझे इस से बड़ी लगती है। मैं एक औसतन दर्जे का पाठक रहा हूँ जो एक सामान्य सी समझ रखता है। लेकिन  इस्माइल दर्ज़ी की दुकान   में मैं कितनी बार जा चूका हूँ ये मुझे ही पता है। वो लाल दीवारें जब मुझे खाये जा रही थी तो तुमने दख़लअंदाज़ी बढ़ाने को कहा। मैं सीरियस नही हो पाया उस समय  लेकिन तुमने लहरों और सोचालय का पता देकर मुझे अंगूठी फेंकने के लिए तैयार कर दिया। और हाँ  उस दिन की साँझा यादों का जिम्मा तुम्हारा है। '' ह म ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहाँ हम ख़ुद नहीं जानते कि यह दौर हमारे साथ क्या कर रहा है।''  ये तुम्हारी लिखी पंक्तियाँ हैं। जब त

झीनी सी धुप

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आज कल धुप देखने को कहा मिलती है चार मंजिला से होती हुई कोई झीनी सी धुप घर में आई  मै कमरे में औन्धे मुहं लेटा था बिना ख्याल के वो कमरे में चुपचाप से आई और कमर पर उकडू बैठ गई कमर में जो जो इतने दिन से दर्द घर बनाये बैठा था उसने भी उफ्फ तक ना की उसके बैठने के अंदाज़ पर फिर भी जब एक आह निकल ही गयी उफक के मुहं से तो उसने कहा बूढ़े हो चले हो जवान दिनों में मै क्या कहता उसके इस सवाल पर मै चुप ही रहा ....और उसके स्पर्श को महसूस करता रहा देर तक जब उसके होने का एहसास दिल से जाने लगा तो मै उठा कमर के दर्द में तपाक से पर ये क्या वो झीनी सी धुप जा चुकी थी मेरे कमरे से वो झीनी सी धुप और मेरा इंतजार................... संदीप विहान

ब्रह्ममूर्त के ख्याल

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सुबह के 4:01 तक कमरे में इधर से उधर भटक चूका हूँ कई बार , अपने सपने की बैचनी से उठ खड़ा हुआ हूँ मैं , अलाव भी नही है जो सेंक लूँ पाव अपने शहर ये मौके नही देता , कई पंक्तियाँ लिखकर कई बार काट चूका हूँ कौनसे शब्द हैं जो पिरोने हैं मुझे , दिमाग के किस सफ़्हे में ख़्याल  दर्ज़ कर लिया मैंने पूछने पर महीम रेशों की उलझन का पता दूंगा , चाँदनी चौक में गुरूद्वारे के सामने की भीड़ जैसे ख्याल कई दिनों से दिल में ठूसें हुए है फिर बैचनी होती है ना लिखने पर, और हाँ एक दिन की वो साँझा यादों को लिखने का जिम्मा मैंने   उसका मान लिया , खैर कमरे में जब से चीज़े तरतीब से रखी हैं मेरी हसरतों की उधेड़बुन बुन रही है नया सा कुछ, गिनतियों सी बढ़ रही हैं ज़िंदगी किस और मैं थमना चाहता हूँ किसी पहाड़ की तलहटी के गाँव में , बिलकुल योल के घरों से किसी दुछत्ती घर में ....... संदीप 'विहान '

ठंडी रात के कुछ ख्याल

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ठंड अपने में सिमटने का सबसे अच्छा मौका है। घड़ी की  टिक टिक  मेरे रजाई में होने की बेपरवाही याद दिलाती है।अब ऐसी सर्दी में लगता भी हैं की चाँद धुंध के कणों से उतरता हुआ आएगा।मुझे बहुत सारी बातें करनी है किसी अपने से। चाँद से ही बातें करने के बारे में सोच लेता हूँ। चाँद मेरे लिए कोई प्रेमिका टाइप साहित्यिक सिंबल नही है। बस नही होने में कोई अपना-सा है। चाँद थोड़ा दूर का ख्याल होने के कारण खुद की साँसोँ से बात कर लेना भी एक और तरीका है अपने को याद करने का। शाम के सात बजे का टाइम सबसे मुश्किल होता है। इस टाइम में मैं ओल्ड मोंक की बोतल में अपनी रातों की वजह ढूंढने के लिए पीना चाहता हूँ। लेकिन क्या करू शराब प्रेमिका सी बुरी आदत है जो बुरे वक़्त में छोड़ देगी।ये ठंड ख्यालों को सुस्त करने का वक़्त नही हैं मेरे लिए, ये तो दुरस्त करने का वक़्त हैं ख्यालों को। ठंड में इतनी शांति होती है की कोई ख्याल चुपके से दिमाग से निकलने की जगह लड़ता रहता मुझसे। वैसे ठंड ने सही टाइम पर दस्तक दी है क्योंकि कुछ हैं जो छूटा  जा रहा है। और इस बार मैंने भी छूटने वाले डर  को जगह देनी बंद कर दी हैं। फिर से अपने ख्यालों का

सही तो है

किसी रोज़ एक लड़की देखी , उसने कहा देखो ये मेरी शक्ल हैं  उसकी शक्ल में थी कई क्रन्तिकारी प्रतिलिपियाँ  फिर जैसे जैसे मैं देखने लगा उसे रोज़ , उसमें नजर आया उसके पिता,भाई  का चेहरा , उसकी शादी की परायी उमंगें , फिर एक दिन उसने कहा मैं अपना मकान चुनुँगी, मकान लेने मेरे पिता मेरी मदद करेंगे , अब वो  रहती हैं उस मकान में बिलकुल उसी मकान में , बिलकुल सब  लड़कियों  की तरह खुश हैं वो आज.......  संदीप विहान

धूप और मैं

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कुछ देर बालकनी में बैठकर रोज़ धूप का इंतज़ार करता हूँ, कमरे की ड्योढ़ी तक आकर वो चली जाती हैं , मैं कुछ न सोचते हुए भी बस ये करता हूँ , अगली सुबह फिर  धूप का इंतज़ार करता हूँ ....... 

तस्वीर पुरानी

ज़िंदा तस्वीरों सा हो गया हूँ मैं , विरले ही ढूंढ पाता हूँ मैं लेकिन ये अनमनी सी अकुलाहट लिए कब तक फिरूंगा  याद रखना तस्वीर पुरानी हो जाती हैं ,बदलती नही  विहान  

बोल

मैं होता रहूँगा  अभिव्यक्त   तब भी जब मेरे लब सील दिए जायेगे  तुम नकारते रहो  मैं पुकारता रहूँगा  तुम्हारे गुलाम ख्यालों पर  मैं आजादी सा हर बार उग जाउगा  विहान 

नीला फोल्डर

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                                                                                                                                            हर असाइनमेंट के लिए कॉलेज में पूरी तयारी के साथ उससे सजा कर जमा करना होता था। इतना सब होते होते ज़िंदगी के दोजख में वो लड़का किसी पीएचडी में पहुंच गया था। ज़िंदगी की इस ज़द्दोज़हद में वो क्या समेट रहा था और खोल रहा था उससे ही नही पता था। वो प्रेमिका की त्रासदी से गुजरकर उन सपनों की हसीं वादियों में एक आह ! के साथ आसमान को कितनी बार दोपहर में भी तक लेता था ,तब ,जब सूरज भी इसकी इज़ाज़त से नही देता था। इन सब बातो को अपनी माँ से उसने कभी नही बताया फिर भी माँ ने सब जान लिया। एक रोज़ जब वो रोज़ की तरह यूनिवर्सिटी के लिए निकल ही रहा था तो उसकी माँ ने खाँसते हुए बोला बेटा आजकल बहुत परेशान रहते हो,ज़िंदगी में सब ठीक हो जायेगा अपना ध्यान रखो और सेहत मत बिगाड़ों अपनी इस पढ़ाई के चलते। बेटा कुछ नही बोला तो माँ  ने चारपाई पर बैठे बेटे के सर पर हाथ फेरते हुए फिर कहा जो दुरुस्त हैं वही तंदुरुस्त हैं। इस बीच माँ की बात सुनकर अपने को सँभालते हुए वो

कुछ न होने सा होना

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                                                                         अथाह होना , या सिमट जाना , चिल्लाना , या चुप हो जाना , बेबाक होना , या बरबाद होना , मीठे होना , या हो जाना बेस्वाद , हँसना देखकर , या रोना एकेले , हरित सा, या बंजर होना , मानव बनना,                 और मृत्यु को प्राप्त कर लेना ………  विहान 

उसका ख्याल

रोने से उसका अक्स अक्सर उभर आता है , लोग कहते है तुम कमजोर हो  , और फिर मैं कोई कोना ढूंढने लगता हूँ  ..........  विहान

लालनाक इशक

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                                      वो लड़का जिसने ऑप्शन में ऐसा विषय लिया था जिसकी क्लासेज दोपहर तक निपट जाया करती थी। उसके बाद दोस्तों के साथ कैंटीन में दुनियाभर की बातों पर  बातें करता रहता था। कुछ खास श्यामों में खास क्लास के सामने भटकता रहता था. इस बात की खबर सिर्फ उसे ही थी. जैसे ही वो बाहर निकलती वो एकटक देखता और वापिस लौट जाता। लेकिन आज जब उसने लड़की को देखा तो  सर्द शाम में लेट तक चलने वाली क्लास से निकलने के बाद वो अपने फैशन के चलते ठिठुर रही थी ।वो क्लास में सबसे बतियाता था सिर्फ उसी से नही। उस दिन वो लड़की के पास जाकर बोला लगता हैं  ' क्लास देर तक चली है ।'   हाँ लड़की ने जवाब दिया।इतना कह वो चल दी। अब लड़के की नजर जब लड़की की नाक पर गयी तो पूछ ही लिया। '' नाक को क्या लाल रंग से क्यूँ  रंग लिया है''। लड़की ने जुखाम भरी नाक से साँस खीचते हुए तंज कस्ते हुए कहा की 'वो ना लाल मेरा फेवरेट कलर है। ' इसके बाद वो लड़का चुप था। बस इतना ही कहा की चलो स्टैंड तक छोड़ देता हूँ। पहली बार की मुलाकात में वो पूरे रस्तें में इधर उधर की बाते क

अरुणा शानबाग

                         अरुणा शानबाग के लिए जिन्होंने पुरुष लोलुपता को 42 वर्ष सहा.………  42 साल में कुछ नही बदला … एक बेड पर पड़ी तुमने जिया अपनी मृत्यु को , तुम माँ ,बहन ,बेटी ,प्रेमिका  नही हो सकी , कितना मुश्किल है स्त्री होना, जो तुम हुई , पुरुष की अतृप्त इच्छाए कभी संतृप्त नही होगी, जो रिश्ते में है किसी अर्थ में वे भी भोग  सिर्फ पुरुष इच्छाओं को , किसी  को पत्नी का फ़र्ज़ निभाना है,  तो किसी को बेटी होने का फ़र्ज़ , किसी को निभाना है माँ होना , सारे  फ़र्ज़ो को को भोग रही हो , अपने लिए ज़ी ही नही कभी स्त्री … 

ल्हासा की माँए

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                                                                                  अपने शिक्षायी जीवन शुरू होने से लेकर शोध छात्र होने तक एक नागरिक बनने का लम्बा सफर तय किया। हमें एक तयशुदा प्रक्रिया के तहत अच्छे नागरिक होने के गुणों को शिक्षा ने हमारे अंदर पैदा  किया। लेकिन  कई बार जीवन के कई प्रस्थान बिंदु आपको सोचने को मजबूर कर देते है। ऐसा ही मेरी पिछली यात्रा के दौरान हुआ। यात्राएं आपको कई बार कितना झकझोर देती है ये मैंने अपनी पिछली धर्मशाला -मैक्लोडगंज  की यात्रा के दौरान जाना। जब मैं  अपनी पर्यटन यात्रा के दौरान  अतुल्य भारत को देखकर गौरान्वित महसूस कर रहा था तभी मुझे मैक्लॉडगंज  में एक अविस्मरणीय  जगह देखने का मौका मिला। ये जगह अपने आप में  तिब्बत  को  आँखों के सामने ला देती है।  यहाँ पर तिब्बत से निर्वासित लोगों की सामूहिक बस्ती  के माहौल को देख सकते है ।यहाँ एक छोटा-सा तिब्बत बसता  है । यहाँ  पर रहने वाले तिब्बती लोंगो  का धीर गंभीर स्वभाव देखने को मिलता है। तिब्बती लोगों की बस्ती के माहौल में उनकी मिट्टी की गंध को सूंघ  सकते है।ये  निर्वासित जीवन उनकी आशाओं  के पुञ

इश्क़ में........

    इश्क़ हमेशा हद में होना चाहिए ,  जब इश्क़ हो बेहद होना चाहिए , इश्क़ में फ़िक्र भी होनी  चाहिए,  इश्क़ बेफिक्र ही होना चाहिए, इश्क़ हो तो परवाह होनी चाहिए , इश्क़ में ही लापरवाह होना चाहिए , इश्क़  आदत में शामिल होना चाहिए , वो इश्क ही आदत होना चाहिए , इश्क़ अल्लाह होआ चाहिए, नही इश्क इश्क़ होना चाहिए , इश्क़ में विहान होना चाहिए , इश्क़ ....... होना ही नही चाहिए । विहान   

फाकामस्ती

              ज़िंदगी के एक पहर से दूसरे पहर , शब की जागती रातो से  सोती सहर ज़िंदगी अब तू ही बता दें बैचैन सिर्फ मैं ही क्यों हूँ। ……………  विहान  सहर -सुबह ,शब- रात     

यादों के निशाँ

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                                                    करतनें है दर्जनों रिश्तों की , बचाए बचाए फिर रहा हूँ ,  सोचता हूँ फेंक दू लेकिन , सिर्फ करतनें ही नही है ना सिर्फ, उन रिश्तों का क्या जो जिए हम ,  वो पगडंडियों सी यादों का क्या , जो तुमने मैंने बनायी थी साथ चलकर , उग ही आई उन पर घास जब तुमने चलने से मना कर दिया  मैं खुश इस बात से रहूँगा पूरी ज़िंदगी  यहां कोई पगडण्डी हुआ करती थी     यही अंत है  या  है  ये अनन्त …                                                                                                        विहान 

बदली बदली सी प्रकृति

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                                                           जब मनुष्य ने अपने आधुनिक होने के मायनों के चलते लगातार इस प्रकृति को बदला है  तो मनुष्य को भी प्रकृति के बदलने पर आश्चर्य या दुःख प्रकट नही करना चाहिए।  पिछली कुछ  सदियों  में विकास के नाम पर इस प्रकृति ने इतना सहा है। ये जब बदलती है तो  ये मनुष्य सिहर जाते है। प्रकृति में हर वस्तु का  प्रस्फुटन स्वयं में होता है किसी को हानि पहुचाए बगैर।  लेकिन ये मनुष्य प्रजाति शुरुआत से ही इतनी संवेदनहीन है की ये सबके पल्लवन  की दिशा तय करने की कोशिश में रही है। जब चिड़ियाँ ने अपना घोसला बनाया तो उसने पेड़ का ध्यान रखा।  जब किसी पेड़ ने कभी अंकुरित होना चाहा तो उसने मिटटी का ध्यान रखा । जब मछली ने तैरना चाहा तो समुंदर का ध्यान रखा। जब समुंदर  की लहरों ने  फैलना चाहा तो किनारों  में सिमट जाना ध्यान रखा।  इस तरह प्रकृति में सजीव और निर्जीव दोनों ने एक दूसरे का ध्यान रखा। सहअस्तित्व के इस भाव ने  धरती या इस प्रकृति को ज़िंदा रखा।  लेकिन  मनुष्य ने अपने  स्वार्थों  के लिए  प्रकृति का सतत दोहन किया। पेड़ों को काटकर  मकान बनाए। संसाधनों
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                                                               मानवीय हो जाना    जिंदगी के जब आप अर्थ ढूढ़ने लगते हो तो वह सबसे मुश्किल हालत में पहुंच जाती है।  ये ओर भी मुश्किल हो जाता है जब आप  किसी को ज़िंदगी मान लेते हो। इस ज़िंदगी का साँचा अगर ढलने की कोशिश  कर रहा होता है तो हमें ये नही भूलना चाहिए की ये सब निर्वात में नही होता है।  इसके लिए दिल, दोस्ती ,दारू, करियर , परिवार  ओर भी न जाने क्या क्या है  आपके सामने।  आप अपने लिए जी ही नही रहे होते। आप जी रहे होते होते हो सबके लिए। अब एक ज़िंदगी में इतने मुश्किलात सवाल दसवीं क्लास के बोर्ड वाले गणित के एग्जाम से  कम थोड़े ही है। अगर फेल हो गए तो दूसरों की बातें सुनने से पहले ही आप सोच सोच के मरने वाले हालात में पहुंच जाते हो। खैर मुद्दा ज़िंदगी था ना की कोई बोर्ड का एग्जाम। इस बार जिंदगी में जो सवाल मुझे मिला वो था एक मानव बनने का। पिछली लाइन पढ़ते ही आप सोच रहे होगे क्या मैं  इस से पहले मानव नही था या  निर्जीव चीज़ था क्या ?शायद मैं इस से पहले किसी और सवालात के जवाब को ढूढ़ने में मशगूल था। लेकिन मेरे लिए नया सवाल था मानवीय हो जा
                                                                       उम्मीदों की पतंग विश्वविद्यालय  हमें  दुनिया को समझने के नए आयाम देने के लिए होते है । लेकिन सोच को पंगु बनाने का काम भी आजकल  विश्वविद्यालय  ही कर रहे है , एक दायरे में सोच को लामबद्ध करके । खैर आप भी सोचते होगे की कौनसी नई बात लिख रहा हूँ  । शिक्षा विषय का अकादमिक शोध छात्र होने के नाते बच्चों की दुनिया से मैं  शिक्षा के समाजशास्त्र ,मनोविज्ञान  और दर्शनशास्त्र  की किताबों में एक सुन्दर  सपने या समस्या की तरह रूबरू  होता रहता हूँ । लेकिन जब आप सड़क पर निकलकर देखते है तो शास्त्रीय ज्ञान किताबों  तक ही ठीक लगता है । कुछ दिनों पहले  शाम को जब मैं टहलने के लिए हॉस्टल  से निकला तो मैंने उम्मीदों  की पतंग को उड़ते देखा । इस पतंग को उड़ाने वाला एक अल्हड़ बच्चा था। उसकी उम्र पांच या  छह साल ही होगी । उसको देखने में दो चीजें कॉमन  नजर आती थी एक उसके फटते कपडें और दूसरी उसकी फटती पतंग । उस बच्चे की पतंग उड़ाने की जगह थी गाड़ियों के  तेजी और शोरगुल से भरी सड़क के किनारे बना फुटपाथ । फुटपाथ पर भी लोगों की आवाजाही चल रही थ