बलदेव कृष्ण वैद्य का उपन्यास उसका बचपन पढ़ते पढ़ते अपने को उकेरता हूँ तो बचपन के उस हिस्से में लौटना चाहता हूँ जिस हिस्से का वक्त मैंने दोस्तों के साथ बिताया। अब यही हिस्सा है जिसमें बलदेव अपने उस बाल पात्र को परिवार की कहानी से नही निकालते। जब हमारे सांस्कृतिक परिवेश में बचपन बड़ों से बंधा हुआ होता है। तो उस बचपन को बचपन बनाये रखने में बाल मनोविज्ञान क्या करता है? वह शायद अपने आसपास उस पात्र की संरचना बनाने में लग जाता है जो उसके साथ उसकी तरह से जिये। जीने के इस क्रम में वो जो करीबी होता है उसे दोस्त की संज्ञा में अपने पास पाता है। यह जो मैं कह रहा हूँ शायद यह औसत पुरुष बालमन के बारे में कह रहा हूँ। दोस्त को मैं अपने बचपन का रचनात्मक सेल्फ(क्रिएटिव सेल्फ) मानता हूँ। जब घर वाले या स्कूल मुझे लगाम में बांधते थे तो मेरा यही सेल्फ मेरी लगाम में मेरे साथ भागता था। जैसे पढ़ाई या रोज रोज का होमवर्क मेरे से नही होता था तो मेरा दोस्त रोज रोज स्कूल पहुँचते ही हर आने वाले पीरियड या खाली वक्त में मेरी कॉपी के पन्नों को पलटता था। इस ज़िद में की किसी तरह मैं पिटाई से बच जाऊं। लेकिन मैं उसे इस माम...
शुरुआत कहा से हो मैं नही जानता।शहर मेरे लिए लगातार अजीब होता जा रहा है। इसमें मैं हवा के अक्स को ढूंढने की कोशिश में ही लगा रहता हूँ। शहर आपको एक अजीब तरह की अव्यवस्था की तरफ धकेलते है। जो लोग इस शहर को अपना लेते है वो इसको सच्चाई मान लेते है।सच्चाई शहर के व्यवस्थित मान लेने की है। जैसे ही व्यवस्थित कहा तो लगातार शहर कंक्रीट और लोहे में तब्दील दिखाई देने लगता है।चारों तरफ़ नजर दौड़ाने पर एक भीड़ सामने नजर आती है वो भीड़ है इंसानों की, मकानों की, दुकानों की और बंद गलियों की।लगातार शहर अपने में कैद हो रहे है और ये हमारे लिए डेवलपमेंट है। हम लगातार अपने अगल-बगल में झाँक रहे होते है और सोचते है मेरा डेवलपमेंट इस से कम कैसे है। इस क्षीण भाव से शहर हमें भीड़ में धकेलता है। शहर में बचे रहने की सम्भावना के लिए हमनें पार्क,मार्केट,मॉल और भी कई कोने ढूंढ लिए है। अपने को पीठ पर लादे हुए इधर से उधर घूमना शहर में रवायत है। मिल जाने की सम्भावना के साथ ही तो हम लगातार इन शहरों में अपने से जूझ रहे है। आप कभी फ्लाईओवर पर खड़े होइए और देखिये शहर को फिर सोचिए क्यूँ दिल फ्लाईअवे...
प्रिय शचीन्द्र , तुम्हारे ब्लॉग पर नई पोस्ट पढ़ के झटका लगा की तुम ब्लॉग से छुट्टी ले रहे हों।इस महानगर में कमरे के किसी कोने में तुम जिन सपनों को अपने ब्लॉग पर उतार लेते हो,मैं हमेशा से उसका मुरीद हूँ । तुमने मुझे वो अंगूठी फेंकनें को कहा था ना, शायद वो मैं पूरी ज़िंदगी न फेंक पाऊँ ।लेकिन तुम इरादों के पक्के हो तुम इस नई अंगूठी को फेंकना चाह ही रहे हो तो ठीक है।हाँ तुम्हारें सार्थक ना होने का गुस्सा भी नजर आता हैं।लेकिन तुम्हारी परिधि मुझे इस से बड़ी लगती है। मैं एक औसतन दर्जे का पाठक रहा हूँ जो एक सामान्य सी समझ रखता है। लेकिन इस्माइल दर्ज़ी की दुकान में मैं कितनी बार जा चूका हूँ ये मुझे ही पता है। वो लाल दीवारें जब मुझे खाये जा रही थी तो तुमने दख़लअंदाज़ी बढ़ाने को कहा। मैं सीरियस नही हो पाया उस समय लेकिन तुमने लहरों और सोचालय का पता देकर मुझे अंगूठी फेंकने के लिए तैयार कर दिया। और हाँ उस दिन की साँझा यादों का जिम्मा तुम्हारा है। '' ह म ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहाँ हम ख़ुद नहीं जानते कि यह दौर हमारे साथ क्या कर रहा है।'' ये तुम्हारी ल...
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