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Showing posts from June, 2016

माफीनामा बायीं तरफ दर्ज है

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पूरा दिन यूँ ही निकल जाता है। सामने कई किताबें बिखरी है। क्रांति अब मेरे लिए मूकदर्शक है। पढ़ना जैसे कमरे में लगा मकड़ी का जाला हो गया है जिस पर धुल जम चुकी है। आजकल अपने पीछे एक ही समय में दो हाथों के सहारे अपने कान और आँखे बंद करके खड़ा हूँ।क्या पगडंडी तुम्हारी बनाई हुई है ? इस पर चलुंगा तो मुझे पता है तुमने चलने के लिए पक्की गली चुनी है। अपने में लौटने का इंतजार कर रहा वो शख़्स सिर्फ एक मूर्ति है जिसे इतिहासकार किसी संग्रहालय में ढूंढ के रखेंगे। पता नही उसे वो देख पाएंगे जिनके लिए वो आशान्वित है की एक दिन उसे वो देखेंगे। कुछ दिन के लिए समय हम में बीतना चाहता था तो फिर बीत गया तो उसकी स्मृति रेखाएँ भी हाथ में नही पढ़नी चाहिए। वैसे समंदर किनारे रेत में लेट जाने का मन होता है जब ज्वार चढ़ेगा तो मैं उसमे उतर जाऊंगा। फिर अनंतकाल तक उस मछली की आँखों में झाँकूँगा जिसमे इंसानी दुनिया नहीं होगी। भूगोल का छात्र होते हुए भी कहना चाहता हूँ की मैं पृथ्वी के किनारे -किनारे चलना चाहता हूँ। चलना भी एक रवायत है समंदर से लहरे लगातार चल कर आती है और किनारे पर आकर टूट जाती है।मेरा ये सब लिखना कह द

शहर में क्या होंगे हम तुम

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चलों न साथ साथ चलते है इन सड़कों पर  इस शहर में एक दूसरे को ढूंढेगे हम दोनों हो जाएंगे बस स्टैण्ड का इंतजार किसी खाली बस में घर तक पहुंचेंगे  हम उस पानी वाले का पानी हो जाएंगे  जो ठण्डा रहता है घंटों और प्यास किसी की बुझाता है  हम किसी रिक्शा खींचने वाले का पसीना बनकर बहेंगे  जो शाम को ढ़ाबे पर रोटी के स्वाद बदलता है  हम यूनिवर्सिटी की वो बेस्वाद चाय हो जाएंगे जिस को दिल्लगी के चलते पीते है  तुम कमला नगर हो शायद और मैं मुखर्जी नगर तुमसे दिल नहीं भरता और मैं वहा ठहरा हूँ कई सालों से         देखो  शहर रोज बदल रहा है.........   संदीप 'विहान'