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Showing posts from April, 2016

ख़ालिस शहर........

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शुरुआत कहा से हो मैं नही जानता।शहर मेरे लिए लगातार अजीब होता जा रहा है। इसमें मैं हवा के अक्स को ढूंढने की कोशिश में ही लगा रहता हूँ। शहर आपको एक अजीब तरह की अव्यवस्था की तरफ धकेलते है। जो लोग इस शहर को अपना लेते है वो इसको सच्चाई मान लेते है।सच्चाई शहर के व्यवस्थित मान लेने की है। जैसे ही व्यवस्थित कहा तो लगातार शहर कंक्रीट और लोहे में तब्दील दिखाई देने लगता है।चारों तरफ़ नजर दौड़ाने पर एक भीड़ सामने नजर आती है वो भीड़ है इंसानों की, मकानों की, दुकानों की और बंद गलियों की।लगातार शहर अपने में कैद हो रहे है और ये हमारे लिए डेवलपमेंट है। हम लगातार अपने अगल-बगल में झाँक रहे होते है और सोचते है मेरा डेवलपमेंट इस से कम कैसे है। इस क्षीण भाव से शहर हमें भीड़ में धकेलता है। शहर में बचे रहने की सम्भावना के लिए हमनें पार्क,मार्केट,मॉल और भी कई कोने ढूंढ लिए है। अपने को पीठ पर लादे हुए इधर से उधर घूमना शहर में रवायत है। मिल जाने की सम्भावना के साथ ही तो हम लगातार इन शहरों में अपने से जूझ रहे है। आप कभी फ्लाईओवर पर खड़े होइए और देखिये शहर को फिर सोचिए क्यूँ दिल फ्लाईअवे हो जाना चाहता है।

संजीदा से ख्वाब

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मेरा ख्वाब क्या है , पहाड़ की तलहटी , नदी को सुबह जाकर बहते सुनना , रात को चाँदनी रात में बर्फ वाला पहाड़ निहारना, पहाड़ की गुफा के किनारे लगा फ़ूस का बिस्तर , नदी किनारे सुबह-सुबह पानी में पैर डालकर  दुष्यंत की कविताएँ पढ़ू .........  और हाँ रात में किसी बर्फ पहाड़ी रास्ते में बिस्तर बिछाकर  ये गुनगुनाना.   पेड़—पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे                                                                                      रास्तों में एक भी बरगद नहीं।                                                                                                                    संदीप 'विहान' 

अश्लील समाज की औरतें

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हाथ में आधे हाथ का आधा शादी का चूड़ा पहने जाती औरत, चाय की दुकान के सामने खुले स्नानागार में सहजता से नहा रही औरत , सुबह-सुबह दो बैग लेकर कंधे पर उचकाती  जाती औरत, स्कूल की तरफ जाते हुए पानी की बोतल से पानी पीती लड़की , कपड़ों की गठरी को लेकर जल्दी से दुकान की तरफ भागती औरत , सुबह सुबह सूर्य को जल अर्ध्य देकर मनाती औरत, उम्र के शायद सतहरवें पड़ाव पर पार्क में बैठी मुँह में कुछ बुदबुदाती वो औरत, घर के बाहर झाड़ू निकालती धूल धूसरित वो औरत, सब सामान्य तो नजर आ रहा है सुबह में , माफ़ कीजियेगा ये अश्लील समाज की औरतें है जो खुद तो कुछ कहती नजर नहीं आ रही किसी को, लेकिन अश्लील समाज इन्हें लील रहा है । इस कविता को सुबह 6 बजे की चाय पीकर आने के बाद लिखा। यह भी नही पता की क्यूँ लिखा । मुझे अंतिम  पंक्ति भी ठीक नही लग रही। लेकिन जिस तरह ये बुनी है, वो आपके लिए मेरे लिए है। और हाँ मैं भी वही घृणित समाज हूँ, कोई और नही। मेरी वैचारिक प्रतिस्पर्धा मेरे से ही है। अजीब कशमकश है गद्य क्यूँ नही लिख पाता। इस सवाल को जरूर ढूंढूगा।