मानवीय हो जाना जिंदगी के जब आप अर्थ ढूढ़ने लगते हो तो वह सबसे मुश्किल हालत में पहुंच जाती है। ये ओर भी मुश्किल हो जाता है जब आप किसी को ज़िंदगी मान लेते हो। इस ज़िंदगी का साँचा अगर ढलने की कोशिश कर रहा होता है तो हमें ये नही भूलना चाहिए की ये सब निर्वात में नही होता है। इसके लिए दिल, दोस्ती ,दारू, करियर , परिवार ओर भी न जाने क्या क्या है आपके सामने। आप अपने लिए जी ही नही रहे होते। आप जी रहे होते होते हो सबके लिए। अब एक ज़िंदगी में इतने मुश्किलात सवाल दसवीं क्लास के बोर्ड वाले गणित के एग्जाम से कम थोड़े ही है। अगर फेल हो गए तो दूसरों की बातें सुनने से पहले ही आप सोच सोच के मरने वाले हालात में पहुंच जाते हो। खैर मुद्दा ज़िंदगी था ना की कोई बोर्ड का एग्जाम। इस बार जिंदगी में जो सवाल मुझे मिला वो था एक मानव बनने का। पिछली लाइन पढ़ते ही आप सोच रहे होगे क्या मैं इस से पहले मानव नही था या निर्जीव चीज़ था क्या ?शायद मैं इस से पहले किसी और सवालात के जवाब को ढूढ़ने में मशगूल था। लेकिन मेरे लिए नया सवाल था मानवीय हो जा
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उम्मीदों की पतंग विश्वविद्यालय हमें दुनिया को समझने के नए आयाम देने के लिए होते है । लेकिन सोच को पंगु बनाने का काम भी आजकल विश्वविद्यालय ही कर रहे है , एक दायरे में सोच को लामबद्ध करके । खैर आप भी सोचते होगे की कौनसी नई बात लिख रहा हूँ । शिक्षा विषय का अकादमिक शोध छात्र होने के नाते बच्चों की दुनिया से मैं शिक्षा के समाजशास्त्र ,मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र की किताबों में एक सुन्दर सपने या समस्या की तरह रूबरू होता रहता हूँ । लेकिन जब आप सड़क पर निकलकर देखते है तो शास्त्रीय ज्ञान किताबों तक ही ठीक लगता है । कुछ दिनों पहले शाम को जब मैं टहलने के लिए हॉस्टल से निकला तो मैंने उम्मीदों की पतंग को उड़ते देखा । इस पतंग को उड़ाने वाला एक अल्हड़ बच्चा था। उसकी उम्र पांच या छह साल ही होगी । उसको देखने में दो चीजें कॉमन नजर आती थी एक उसके फटते कपडें और दूसरी उसकी फटती पतंग । उस बच्चे की पतंग उड़ाने की जगह थी गाड़ियों के तेजी और शोरगुल से भरी सड़क के किनारे बना फुटपाथ । फुटपाथ पर भी लोगों की आवाजाही चल रही थ