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Showing posts from December, 2015

अलविदा से पहले कुछ कहना है

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प्रिय शचीन्द्र , तुम्हारे ब्लॉग पर नई पोस्ट पढ़ के झटका लगा की तुम ब्लॉग से छुट्टी ले रहे हों।इस महानगर में कमरे के किसी कोने में तुम जिन सपनों को अपने ब्लॉग पर उतार लेते हो,मैं हमेशा से उसका मुरीद हूँ । तुमने मुझे वो अंगूठी फेंकनें को कहा था ना, शायद वो मैं पूरी ज़िंदगी न फेंक पाऊँ ।लेकिन तुम इरादों के पक्के हो तुम इस नई अंगूठी को फेंकना चाह ही रहे हो तो ठीक है।हाँ तुम्हारें सार्थक ना होने का गुस्सा भी नजर आता हैं।लेकिन तुम्हारी परिधि मुझे इस से बड़ी लगती है। मैं एक औसतन दर्जे का पाठक रहा हूँ जो एक सामान्य सी समझ रखता है। लेकिन  इस्माइल दर्ज़ी की दुकान   में मैं कितनी बार जा चूका हूँ ये मुझे ही पता है। वो लाल दीवारें जब मुझे खाये जा रही थी तो तुमने दख़लअंदाज़ी बढ़ाने को कहा। मैं सीरियस नही हो पाया उस समय  लेकिन तुमने लहरों और सोचालय का पता देकर मुझे अंगूठी फेंकने के लिए तैयार कर दिया। और हाँ  उस दिन की साँझा यादों का जिम्मा तुम्हारा है। '' ह म ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहाँ हम ख़ुद नहीं जानते कि यह दौर हमारे साथ क्या कर रहा है।''  ये तुम्हारी लिखी पंक्तियाँ हैं। जब त

झीनी सी धुप

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आज कल धुप देखने को कहा मिलती है चार मंजिला से होती हुई कोई झीनी सी धुप घर में आई  मै कमरे में औन्धे मुहं लेटा था बिना ख्याल के वो कमरे में चुपचाप से आई और कमर पर उकडू बैठ गई कमर में जो जो इतने दिन से दर्द घर बनाये बैठा था उसने भी उफ्फ तक ना की उसके बैठने के अंदाज़ पर फिर भी जब एक आह निकल ही गयी उफक के मुहं से तो उसने कहा बूढ़े हो चले हो जवान दिनों में मै क्या कहता उसके इस सवाल पर मै चुप ही रहा ....और उसके स्पर्श को महसूस करता रहा देर तक जब उसके होने का एहसास दिल से जाने लगा तो मै उठा कमर के दर्द में तपाक से पर ये क्या वो झीनी सी धुप जा चुकी थी मेरे कमरे से वो झीनी सी धुप और मेरा इंतजार................... संदीप विहान

ब्रह्ममूर्त के ख्याल

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सुबह के 4:01 तक कमरे में इधर से उधर भटक चूका हूँ कई बार , अपने सपने की बैचनी से उठ खड़ा हुआ हूँ मैं , अलाव भी नही है जो सेंक लूँ पाव अपने शहर ये मौके नही देता , कई पंक्तियाँ लिखकर कई बार काट चूका हूँ कौनसे शब्द हैं जो पिरोने हैं मुझे , दिमाग के किस सफ़्हे में ख़्याल  दर्ज़ कर लिया मैंने पूछने पर महीम रेशों की उलझन का पता दूंगा , चाँदनी चौक में गुरूद्वारे के सामने की भीड़ जैसे ख्याल कई दिनों से दिल में ठूसें हुए है फिर बैचनी होती है ना लिखने पर, और हाँ एक दिन की वो साँझा यादों को लिखने का जिम्मा मैंने   उसका मान लिया , खैर कमरे में जब से चीज़े तरतीब से रखी हैं मेरी हसरतों की उधेड़बुन बुन रही है नया सा कुछ, गिनतियों सी बढ़ रही हैं ज़िंदगी किस और मैं थमना चाहता हूँ किसी पहाड़ की तलहटी के गाँव में , बिलकुल योल के घरों से किसी दुछत्ती घर में ....... संदीप 'विहान '

ठंडी रात के कुछ ख्याल

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ठंड अपने में सिमटने का सबसे अच्छा मौका है। घड़ी की  टिक टिक  मेरे रजाई में होने की बेपरवाही याद दिलाती है।अब ऐसी सर्दी में लगता भी हैं की चाँद धुंध के कणों से उतरता हुआ आएगा।मुझे बहुत सारी बातें करनी है किसी अपने से। चाँद से ही बातें करने के बारे में सोच लेता हूँ। चाँद मेरे लिए कोई प्रेमिका टाइप साहित्यिक सिंबल नही है। बस नही होने में कोई अपना-सा है। चाँद थोड़ा दूर का ख्याल होने के कारण खुद की साँसोँ से बात कर लेना भी एक और तरीका है अपने को याद करने का। शाम के सात बजे का टाइम सबसे मुश्किल होता है। इस टाइम में मैं ओल्ड मोंक की बोतल में अपनी रातों की वजह ढूंढने के लिए पीना चाहता हूँ। लेकिन क्या करू शराब प्रेमिका सी बुरी आदत है जो बुरे वक़्त में छोड़ देगी।ये ठंड ख्यालों को सुस्त करने का वक़्त नही हैं मेरे लिए, ये तो दुरस्त करने का वक़्त हैं ख्यालों को। ठंड में इतनी शांति होती है की कोई ख्याल चुपके से दिमाग से निकलने की जगह लड़ता रहता मुझसे। वैसे ठंड ने सही टाइम पर दस्तक दी है क्योंकि कुछ हैं जो छूटा  जा रहा है। और इस बार मैंने भी छूटने वाले डर  को जगह देनी बंद कर दी हैं। फिर से अपने ख्यालों का