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Showing posts from May, 2015

लालनाक इशक

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                                      वो लड़का जिसने ऑप्शन में ऐसा विषय लिया था जिसकी क्लासेज दोपहर तक निपट जाया करती थी। उसके बाद दोस्तों के साथ कैंटीन में दुनियाभर की बातों पर  बातें करता रहता था। कुछ खास श्यामों में खास क्लास के सामने भटकता रहता था. इस बात की खबर सिर्फ उसे ही थी. जैसे ही वो बाहर निकलती वो एकटक देखता और वापिस लौट जाता। लेकिन आज जब उसने लड़की को देखा तो  सर्द शाम में लेट तक चलने वाली क्लास से निकलने के बाद वो अपने फैशन के चलते ठिठुर रही थी ।वो क्लास में सबसे बतियाता था सिर्फ उसी से नही। उस दिन वो लड़की के पास जाकर बोला लगता हैं  ' क्लास देर तक चली है ।'   हाँ लड़की ने जवाब दिया।इतना कह वो चल दी। अब लड़के की नजर जब लड़की की नाक पर गयी तो पूछ ही लिया। '' नाक को क्या लाल रंग से क्यूँ  रंग लिया है''। लड़की ने जुखाम भरी नाक से साँस खीचते हुए तंज कस्ते हुए कहा की 'वो ना लाल मेरा फेवरेट कलर है। ' इसके बाद वो लड़का चुप था। बस इतना ही कहा की चलो स्टैंड तक छोड़ देता हूँ। पहली बार की मुलाकात में वो पूरे रस्तें में इधर उधर की बाते क

अरुणा शानबाग

                         अरुणा शानबाग के लिए जिन्होंने पुरुष लोलुपता को 42 वर्ष सहा.………  42 साल में कुछ नही बदला … एक बेड पर पड़ी तुमने जिया अपनी मृत्यु को , तुम माँ ,बहन ,बेटी ,प्रेमिका  नही हो सकी , कितना मुश्किल है स्त्री होना, जो तुम हुई , पुरुष की अतृप्त इच्छाए कभी संतृप्त नही होगी, जो रिश्ते में है किसी अर्थ में वे भी भोग  सिर्फ पुरुष इच्छाओं को , किसी  को पत्नी का फ़र्ज़ निभाना है,  तो किसी को बेटी होने का फ़र्ज़ , किसी को निभाना है माँ होना , सारे  फ़र्ज़ो को को भोग रही हो , अपने लिए ज़ी ही नही कभी स्त्री … 

ल्हासा की माँए

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                                                                                  अपने शिक्षायी जीवन शुरू होने से लेकर शोध छात्र होने तक एक नागरिक बनने का लम्बा सफर तय किया। हमें एक तयशुदा प्रक्रिया के तहत अच्छे नागरिक होने के गुणों को शिक्षा ने हमारे अंदर पैदा  किया। लेकिन  कई बार जीवन के कई प्रस्थान बिंदु आपको सोचने को मजबूर कर देते है। ऐसा ही मेरी पिछली यात्रा के दौरान हुआ। यात्राएं आपको कई बार कितना झकझोर देती है ये मैंने अपनी पिछली धर्मशाला -मैक्लोडगंज  की यात्रा के दौरान जाना। जब मैं  अपनी पर्यटन यात्रा के दौरान  अतुल्य भारत को देखकर गौरान्वित महसूस कर रहा था तभी मुझे मैक्लॉडगंज  में एक अविस्मरणीय  जगह देखने का मौका मिला। ये जगह अपने आप में  तिब्बत  को  आँखों के सामने ला देती है।  यहाँ पर तिब्बत से निर्वासित लोगों की सामूहिक बस्ती  के माहौल को देख सकते है ।यहाँ एक छोटा-सा तिब्बत बसता  है । यहाँ  पर रहने वाले तिब्बती लोंगो  का धीर गंभीर स्वभाव देखने को मिलता है। तिब्बती लोगों की बस्ती के माहौल में उनकी मिट्टी की गंध को सूंघ  सकते है।ये  निर्वासित जीवन उनकी आशाओं  के पुञ

इश्क़ में........

    इश्क़ हमेशा हद में होना चाहिए ,  जब इश्क़ हो बेहद होना चाहिए , इश्क़ में फ़िक्र भी होनी  चाहिए,  इश्क़ बेफिक्र ही होना चाहिए, इश्क़ हो तो परवाह होनी चाहिए , इश्क़ में ही लापरवाह होना चाहिए , इश्क़  आदत में शामिल होना चाहिए , वो इश्क ही आदत होना चाहिए , इश्क़ अल्लाह होआ चाहिए, नही इश्क इश्क़ होना चाहिए , इश्क़ में विहान होना चाहिए , इश्क़ ....... होना ही नही चाहिए । विहान   

फाकामस्ती

              ज़िंदगी के एक पहर से दूसरे पहर , शब की जागती रातो से  सोती सहर ज़िंदगी अब तू ही बता दें बैचैन सिर्फ मैं ही क्यों हूँ। ……………  विहान  सहर -सुबह ,शब- रात     

यादों के निशाँ

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                                                    करतनें है दर्जनों रिश्तों की , बचाए बचाए फिर रहा हूँ ,  सोचता हूँ फेंक दू लेकिन , सिर्फ करतनें ही नही है ना सिर्फ, उन रिश्तों का क्या जो जिए हम ,  वो पगडंडियों सी यादों का क्या , जो तुमने मैंने बनायी थी साथ चलकर , उग ही आई उन पर घास जब तुमने चलने से मना कर दिया  मैं खुश इस बात से रहूँगा पूरी ज़िंदगी  यहां कोई पगडण्डी हुआ करती थी     यही अंत है  या  है  ये अनन्त …                                                                                                        विहान 

बदली बदली सी प्रकृति

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                                                           जब मनुष्य ने अपने आधुनिक होने के मायनों के चलते लगातार इस प्रकृति को बदला है  तो मनुष्य को भी प्रकृति के बदलने पर आश्चर्य या दुःख प्रकट नही करना चाहिए।  पिछली कुछ  सदियों  में विकास के नाम पर इस प्रकृति ने इतना सहा है। ये जब बदलती है तो  ये मनुष्य सिहर जाते है। प्रकृति में हर वस्तु का  प्रस्फुटन स्वयं में होता है किसी को हानि पहुचाए बगैर।  लेकिन ये मनुष्य प्रजाति शुरुआत से ही इतनी संवेदनहीन है की ये सबके पल्लवन  की दिशा तय करने की कोशिश में रही है। जब चिड़ियाँ ने अपना घोसला बनाया तो उसने पेड़ का ध्यान रखा।  जब किसी पेड़ ने कभी अंकुरित होना चाहा तो उसने मिटटी का ध्यान रखा । जब मछली ने तैरना चाहा तो समुंदर का ध्यान रखा। जब समुंदर  की लहरों ने  फैलना चाहा तो किनारों  में सिमट जाना ध्यान रखा।  इस तरह प्रकृति में सजीव और निर्जीव दोनों ने एक दूसरे का ध्यान रखा। सहअस्तित्व के इस भाव ने  धरती या इस प्रकृति को ज़िंदा रखा।  लेकिन  मनुष्य ने अपने  स्वार्थों  के लिए  प्रकृति का सतत दोहन किया। पेड़ों को काटकर  मकान बनाए। संसाधनों