मानवीय हो जाना 

  जिंदगी के जब आप अर्थ ढूढ़ने लगते हो तो वह सबसे मुश्किल हालत में पहुंच जाती है।  ये ओर भी मुश्किल हो जाता है जब आप  किसी को ज़िंदगी मान लेते हो। इस ज़िंदगी का साँचा अगर ढलने की कोशिश  कर रहा होता है तो हमें ये नही भूलना चाहिए की ये सब निर्वात में नही होता है।  इसके लिए दिल, दोस्ती ,दारू, करियर , परिवार  ओर भी न जाने क्या क्या है  आपके सामने।  आप अपने लिए जी ही नही रहे होते। आप जी रहे होते होते हो सबके लिए। अब एक ज़िंदगी में इतने मुश्किलात सवाल दसवीं क्लास के बोर्ड वाले गणित के एग्जाम से  कम थोड़े ही है। अगर फेल हो गए तो दूसरों की बातें सुनने से पहले ही आप सोच सोच के मरने वाले हालात में पहुंच जाते हो। खैर मुद्दा ज़िंदगी था ना की कोई बोर्ड का एग्जाम। इस बार जिंदगी में जो सवाल मुझे मिला वो था एक मानव बनने का। पिछली लाइन पढ़ते ही आप सोच रहे होगे क्या मैं  इस से पहले मानव नही था या  निर्जीव चीज़ था क्या ?शायद मैं इस से पहले किसी और सवालात के जवाब को ढूढ़ने में मशगूल था। लेकिन मेरे लिए नया सवाल था मानवीय हो जाना। मानवीय हो जाना आप समझते हो.…… मेरे लिए मानवीय हो जाना  संवेदनाओं में डूब जाना  था । भई जैसा की डूबने का व्याकरणिक मतलब है की आप का अंत तय है।  लेकिन मुझे ये स्वीकार्य था। अब इस मानवीयकरण में जो सवालात पैदा हुए वो बड़े ही आसान किस्म के सवालात थे  लेकिन उनका जवाब कोई नही था। अब इस मानवीयकरण में मैं  कब जिस्म से रूह हो गया ये मुझे भी नही पता चला। मेरा अब हर स्पर्श मानवीय था।  लेकिन  मेरे हर सवालात के जबाव पता क्या थे.………ये समाज  हो जाना। जो मेरे दिन थे वो रात से थे और मेरी राते दिनों सी निकली रहती थी। एक दिन  जब जिंदगी न लहजा बदला तो उसने कहा की तुम्हारी दिनचर्या ठीक नही है। ये क्या जिस वक़्त उसने ये कहा मैं मानवीय हो चुका था। आजकल  ज़िंदगी के दिए हुए सवालों को मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में लिए फिरता हूँ। यूनिवर्सिटी में  आजकल जो पतझड़ का मौसम है उसमे मैं अपने मानवीय होने के तर्क को नकारने की कोशिश में लगातार लगा रहता हूँ।जब शाम को साइंस फैकल्टी में चिड़ियाँ ची ची करती है तो सोचता हूँ  ये तो घर लौट चुकी है। लेकिन मैं अपने ख्यालों में ज़िंदगी के मानवीय होने की बाँट जोह रहा हूँ.……

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