सुबह के 4:01 तक कमरे में इधर से उधर भटक चूका हूँ कई बार , अपने सपने की बैचनी से उठ खड़ा हुआ हूँ मैं , अलाव भी नही है जो सेंक लूँ पाव अपने शहर ये मौके नही देता , कई पंक्तियाँ लिखकर कई बार काट चूका हूँ कौनसे शब्द हैं जो पिरोने हैं मुझे , दिमाग के किस सफ़्हे में ख़्याल दर्ज़ कर लिया मैंने पूछने पर महीम रेशों की उलझन का पता दूंगा , चाँदनी चौक में गुरूद्वारे के सामने की भीड़ जैसे ख्याल कई दिनों से दिल में ठूसें हुए है फिर बैचनी होती है ना लिखने पर, और हाँ एक दिन की वो साँझा यादों को लिखने का जिम्मा मैंने उसका मान लिया , खैर कमरे में जब से चीज़े तरतीब से रखी हैं मेरी हसरतों की उधेड़बुन बुन रही है नया सा कुछ, गिनतियों सी बढ़ रही हैं ज़िंदगी किस और मैं थमना चाहता हूँ किसी पहाड़ की तलहटी के गाँव में , बिलकुल योल के घरों से किसी दुछत्ती घर में ....... संदीप 'विहान '
पता नहीं यह क्या है। शायद दिल की परतों से निकली और अंदर ही उपजी कोई टीस। बेहतरीन लिखा है। जिसके लिए हम अंदर ही अंदर घुट रहे हैं, शायद इसके बाद ही वह कुछ बनकर निकलेगा।
ReplyDeleteलिखा करो। लिखने से बात बनेगी। कम से कम हम ख़ुद को सुनना शुरू करेंगे।
Deleteबिलकुल आप हमेशा सबल देते रहेंगे तो विचार यूँ ही ब्लॉग का रूप लेते रहेंगे