वक्त में परिवार

अभी मेट्रो से आ रहा था। एक दपन्ति जिनकी उम्र 20 से 25 के बीच रही होगी। उनके दो बच्चे थे। जिनमें डेढ़ या दो साल का अंतर रहा होगा। मेट्रो में मेरी सााइड वाली सीट पर बैठे थे। क्योंकि जेंडर का इतना  विमर्श पढ़ा है तो मन मे कई सवाल आ रहे थे। सवाल यूँ ही नहीं आ रहे थे वो चेहरे और चेहरे में घुमड़ रहे बादलों के बीच उनकी ज़िंदगी को टटोल रहे थे। पति पत्नी दोनों अपने अपने घरों में बड़े होते हुए, पिताओं के द्वारा ब्याह दिए गए। इतनी जल्दी विवाह के बाद दोनों पर समाज के दवाब रहे होंगे। फिर जवान होते लड़कों में सेक्स की जो समझ बनती है शायद उसमें बच्चे नही होते। लेकिन उसके बाद का परिणाम बच्चे होते है जो उनकी सोची समझी रणनीतिक तैयारी नही माना जाना चाहिए।

अब बात ये है कि उन दो को शिशु से बालपन तक के लालन पालन की जिम्मेदारी का दबाव उस माँ पर होगा। इस बीच वो पिता बन चुका अल्हड़ किशोर भी शायद अपने पिता होने के सामाजिक दबावों को महसूस कर रहा होगा। दबाव इसलिए कह रहा हूँ लड़कियों की तरह सामाजिक जिम्मेदारी और दबावों को लेकर वो जन्म होते ही महसूस नही करते।
मेट्रो में माँ थकान के साथ बैठी है। एक बच्चा प्लास्टिक की बोतल से दूध पी रहा है। दूसरा बच्चा सीट पर खड़ा होकर शीशे से बाहर गुजरती जगहों को देख रहा है। पिता इस बीच कई बार दोनों बच्चों के घूमने की गति पर नियंत्रण बनाये हुए है। इस बीच वो काली पन्नी से सेब निकालकर अपने मुहँ से छोटा टुकड़ा काटते हुए अपने बड़े बच्चे को देता है। वो बच्चा उस टुकड़े को खाने से ज्यादा उसके साथ फू फू कर रहा है।  दूसरा भी बोतल की तली में बचे हुए दूध को छोड़ते हुए सेब के लिए मैदान में है। पिता उसको भी मुहँ से सेब का टुकड़ा तोड़कर देता है। फिर वो खाते खाते थोड़ा गिरा देता है। पिता तुरन्त उसे उठाते हुए काली पन्नी में डाल देता है। माँ थकी है। पिता अभी भी गुथमगुथा है संभालने में। तभी उनका स्टेशन आ जाता है । पिता दो भारी बैग उठाते हुए और माँ दोनों बच्चों को संभालते हुए मेट्रो से उतर जााते है। और मैं उस क्षण में अपने को रोके हुए अपना स्टेशन आने की इंतजार में आँखें बंद कर लेता हूँ।
मेरे पास जेंडर, परिवार,सामाजिक संस्थाओं, देशकाल और भी बहुत सी  व्याख्याएं इस प्रसंग पर है। लेकिन मैं विराम दे रहा हूँ। अपने मौन को आपके पास छोड़ रहा हूँ। आपकी प्रिविलीजिड व्याख्याएं मीडिया या आपके सम्भ्रांत मित्रों या फिर उन समाजशास्त्रियों पर आधारित है जो सरकार की ही तरह इनकी जिंदगियों में नही झांकते है और ‘ये गरीब ऐसे ही होते है’ की व्याख्या  के साथ नजर फेर लेेते है।

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