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Showing posts from 2016

ये वक्त

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                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                किस तरफ जाने दिमाग सोचता है आजकल.   चुपचाप मेरे बिस्तर पर पड़े -पड़े ऊँघना चाहता  हूँ, वो जो सामने लगी चे ग्वेरा की तस्वीर है न कमरे की सोचता हूँ उसको उतारकर रख दूँ कही न दिखने वाली जगह पर, कमरे के पंखे की धूल गर्मी आने पर हटा ही दूंगा गर्मी आने पर, और कमरे में जो दो जालें  है उनमे नही दिख रही मकड़ी, चुपचाप पसरा होने पर भी ,होते हुई कई चीजों को अनदेखा करके, कुछ ठीक होते हुए की गुंजाइश में  रहना चाहता हूँ,  कह देने के भाव से अब मैं विस्मृत होना चाहता हूँ, ये जो मोर्डन आर्ट सरीखी कविता बन रही है, ये मेरे द्वारा अपने आपको न समझे जाने का प्रस्ताव है,  भावशून्य, यही चाहते है न आप सब मुझमें.

जुगनुओं के सवाल

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हम जो आज वर्तमान में खड़े होकर कही भविष्य में देखते है। ये खिड़की बहुत पसन्द है। आज सामने वही सवाल था, जिसका जवाब, सर से अभी तक नही मिला। मेरे सामने वो सवाल आया तो मैंने क्या किया ? कुछ नहीं किया। उलटे मैंने उनके सवाल को अपने कैनवास पर उतार लिया और कहा, देखो ये दुनिया है। हमें इस दुनिया में आशा बनाये रखनी होगी। वैसे मैं छुपना नहीं चाहता। लेकिन सामने आने पर मार दिए जाने का खतरा है। लेकिन इस बदलती दुनिया में हम देखेगे वो दिन के जिस का वादा है।  इस पंक्ति से मैं वादाखिलाफी नहीं करूँगा। बहुत खुश हूँ मैं। इस दौर में जब एक साथ इतनी घटनाएं घट रही है तो मुझे बैचैनी तो है। क्योंकि अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने होंगे। जब मैं इस वक़्त खुद से बहुत नाराज़ हूँ तो मेरी जुगुनुए ही है जो सवाल पुछती रहती हैं। इन जुगनुओं के सवाल हैं।  (पोस्ट अधूरी है। सवाल की तरह ही कभी इसके और हिस्से किश्तों में आते रहेंगे।)

शहर का दिया

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हमनें शहरों को ट्यूबलाइट से भर लिया वक़्त ने शहर से धीरे धीरेआसमां के तारे खोये, शहरों ने हमारे दिन रात हम लोगों से छीने तब से नींद में मिलते है एक-दूसरे से लोग,     शहर ने बिना धूल वाले कंक्रीट के रास्तें दिए शायद ही हमें कोई पगडण्डी मिली हो शहर में, शहरों ने जगह दी रहने को, हमें लोग दिए सुना है गाँव में बहुतेरे घर खाली पड़े है अब, शहरों ने हमें तरीके दिए कई जीने के फिर हम भूलने लग गए एक दूसरे को, शहर ने हमें दुनिया में काम करना सिखाया इंसानियत को भूलकर हमनें ये काम सीख लिये कभी शहर मेरे लिए सपना सरीखे थे फिर भी गाँव ही लौट जाना चाहता हूँ,

सवाल पूछना है

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कई दिनों से  एक सवाल सामने रहता है। लेकिन इसको पूछा क्यों जाए? और न पूछना भी तो सवाल के साथ जीना दुश्वार कर देता है।अगर जवाब के घर का पता  होता तो अपने सवाल को चीठ्ठी के जरिये जरूर पंहुचा देता। लेकिन ऐसे थोड़े होता हैं जवाब की एक दुनिया होगी। फिर मैं क्यों उस जवाब को अपने सवाल के इल्म की दुहाई दू। ये भी तो है इस सवाल के साथ बहुत कुछ कहना था फिर सवाल और फिर कहना दोनों नहीं हो पाता। सवाल के साथ मैं लाइब्रेरी में घंटो बिताता भी हूँ तो भी सूरत-ऐ -हाल वही रहता। जबाब परेशान है इसलिए तंग करना भी ठीक नही पर कोई बात चले तो जा पहुचे गी  ग़ालिब की हवेली तक। वैसे भी आजकल कोई बैठकर शांति से बात कहा करता है। ये सवाल शायद मेरा कृष्णा सोबती की ऐ लड़की से है जो अभी पढ़नी बाकी है। यु भी सवाल के बहाने लिखना हो गया। वरना आजकल बस सोचना ही हो रहा है लिखना नहीं हो पा रहा।

वो अँधेरी दुनिया चाहते है

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वो लड़ रहे है वो झगड़ रहे है  ये करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा भी नहीं होगा  फिर भी वो लड़-झगड़ रहे है    क्यूँ वो एक दूसरे को अपनी पहचान देना चाहते है  जब उनकी जीभ का स्वाद अलग है  जब उनकों स्पंदन भी अपनी तरह का महसूस होता है  जब सब कुछ वो अपनी तरह का करना चाहते है  तो  शायद उन्हें पता होगा की दुनिया में रंग है  अब उन्होंने क्यों इस दुनिया बैरंग करना चाहते है अनंत बिंदु से इस दुनिया ने अपने को सबके हिस्से का गढ़ा है  फिर वो क्यूँ  चाह रहे है की सब उन/उस जैसे हो जाए  आखिर अपने स्वार्थों की खानापूर्ति का ये खेल क्यूँ   उन्हें सब रंगों को मानना होगा वरना एक दिन सिर्फ अँधेरा होगा घोर अँधेरा  फिर शायद खुश हो जाए  मिट जाएगी इंसानी पहचाने पहचानने के लिए सिर्फ बचा रह जायेगा अंधेरा  

माफीनामा बायीं तरफ दर्ज है

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पूरा दिन यूँ ही निकल जाता है। सामने कई किताबें बिखरी है। क्रांति अब मेरे लिए मूकदर्शक है। पढ़ना जैसे कमरे में लगा मकड़ी का जाला हो गया है जिस पर धुल जम चुकी है। आजकल अपने पीछे एक ही समय में दो हाथों के सहारे अपने कान और आँखे बंद करके खड़ा हूँ।क्या पगडंडी तुम्हारी बनाई हुई है ? इस पर चलुंगा तो मुझे पता है तुमने चलने के लिए पक्की गली चुनी है। अपने में लौटने का इंतजार कर रहा वो शख़्स सिर्फ एक मूर्ति है जिसे इतिहासकार किसी संग्रहालय में ढूंढ के रखेंगे। पता नही उसे वो देख पाएंगे जिनके लिए वो आशान्वित है की एक दिन उसे वो देखेंगे। कुछ दिन के लिए समय हम में बीतना चाहता था तो फिर बीत गया तो उसकी स्मृति रेखाएँ भी हाथ में नही पढ़नी चाहिए। वैसे समंदर किनारे रेत में लेट जाने का मन होता है जब ज्वार चढ़ेगा तो मैं उसमे उतर जाऊंगा। फिर अनंतकाल तक उस मछली की आँखों में झाँकूँगा जिसमे इंसानी दुनिया नहीं होगी। भूगोल का छात्र होते हुए भी कहना चाहता हूँ की मैं पृथ्वी के किनारे -किनारे चलना चाहता हूँ। चलना भी एक रवायत है समंदर से लहरे लगातार चल कर आती है और किनारे पर आकर टूट जाती है।मेरा ये सब लिखना कह द

शहर में क्या होंगे हम तुम

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चलों न साथ साथ चलते है इन सड़कों पर  इस शहर में एक दूसरे को ढूंढेगे हम दोनों हो जाएंगे बस स्टैण्ड का इंतजार किसी खाली बस में घर तक पहुंचेंगे  हम उस पानी वाले का पानी हो जाएंगे  जो ठण्डा रहता है घंटों और प्यास किसी की बुझाता है  हम किसी रिक्शा खींचने वाले का पसीना बनकर बहेंगे  जो शाम को ढ़ाबे पर रोटी के स्वाद बदलता है  हम यूनिवर्सिटी की वो बेस्वाद चाय हो जाएंगे जिस को दिल्लगी के चलते पीते है  तुम कमला नगर हो शायद और मैं मुखर्जी नगर तुमसे दिल नहीं भरता और मैं वहा ठहरा हूँ कई सालों से         देखो  शहर रोज बदल रहा है.........   संदीप 'विहान'

और मेरा पहला साल

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दिल्ली में अपनी अलग सी पहचान लिए हुए एक इमारत ने 1948 से अब तक बहुत कुछ गढ़ा है। इस इमारत की खास बात यह है की इसकी ईटे वही से नजर आनी शुरू हो जाती है जहाँ से धरती की सतह शुरू होती है ।मतलब इसकी मजबूती  जमीं से जुडी  है। ये इमारत बड़ी प्रखर है, बातूनी है, लड़ती है, झगड़ती है, मचलती है, सँवरती है और भी न जाने क्या क्या । यह इमारत जीती जागती स्त्री है ।इस इमारत का नाम मिरांडा हाउस है। यहाँ एक साल हो गया। अच्छा लगता है लड़कियाँ दुनिया रच रही है। जिन को आदमी द्वारा दुनिया आगे बढ़ाने का मुगालता है वो अपने पास रखिये। पिछले साल की जनवरी को याद करता हूँ  तो याद आता है की दो औरतों को पढ़ते-पढ़ते मैं उनकी दुनिया में पहुँच जाऊँगा, इस को सोचना बहुत रूमानी है। एक उमा चक्रवर्ती हैं, जिनकी किताब 'जाति में पितृसत्ता' उस दौरान पढ़ के खत्म ही की थी और दूसरी प्रेम चौधरी जिन्होंने 'घूंघट वाली औरतों' की दुनिया को समझाया। वैसे सोचता हूँ मनु भंडारी ने इसी कॉलेज में 'नई नौकरी' कहानी ताना-बाना बुना होगा। नंदिता दास ने इसी कॉलेज में अभिनय के कुछ अंदाज सीखे होगे। रोमिला थापर

विकास का रंगमंच

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''  मैं सोचने पर मजबूर की हम सब क्या अच्छे और बुरे पीआर के शिकार भर है ? '' इस पंक्ति के जरिये घर से लेकर बाहर तक जो हो रहा है ,या फिर देश से विदेश तक जो हो रहा है उसे देखने की  कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन शांत रहने की कवायद में मैं निर्जीव होता जा रहा हूँ। लेकिन निर्विकार नही हो सकता ,क्यूंकि हाड़-माँस का बना हुआ जीव हूँ और वैज्ञानिक भाषा में इस हाड़ माँस के पुतले को होमो सॅपिएन्स कहते है। मैं चाहता हूँ की मैं भी निर्विकार होकर रहने का दैवत्व प्राप्त करू। फिर इसमें भी तो डर हैं की इसी निर्विकार के चलते सभी लड़ाइयाँ और शांति अपने स्थापित मूल्यों में पहुँची हैं जिसे  ईश्वर कहते है। अगर मैं सोचूँ और अपने को इस मैट्रिक्स से बाहर निकालूँ तो मैं घृणा विहीन या स्पन्दनहीन दुनिया की कल्पना करुगाँ। जिसमें जो हो रहा हो उसका आरोप दूसरे पर ना मढ़े।  खालसा से मेरे कमरे तक रस्ता इस शहर के बारे में सोचने को मजबूर कर देता है।मुझे तो ये ही समझ नही आता की कर क्या रहे हैं ? हम अपने साथ !!! और जो कर रहे हैं उसमे स्त्री और पुरुष बराबर के भागीदार है।  छितकुल  जाने का मन है। बस्पा  

ख़ालिस शहर........

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शुरुआत कहा से हो मैं नही जानता।शहर मेरे लिए लगातार अजीब होता जा रहा है। इसमें मैं हवा के अक्स को ढूंढने की कोशिश में ही लगा रहता हूँ। शहर आपको एक अजीब तरह की अव्यवस्था की तरफ धकेलते है। जो लोग इस शहर को अपना लेते है वो इसको सच्चाई मान लेते है।सच्चाई शहर के व्यवस्थित मान लेने की है। जैसे ही व्यवस्थित कहा तो लगातार शहर कंक्रीट और लोहे में तब्दील दिखाई देने लगता है।चारों तरफ़ नजर दौड़ाने पर एक भीड़ सामने नजर आती है वो भीड़ है इंसानों की, मकानों की, दुकानों की और बंद गलियों की।लगातार शहर अपने में कैद हो रहे है और ये हमारे लिए डेवलपमेंट है। हम लगातार अपने अगल-बगल में झाँक रहे होते है और सोचते है मेरा डेवलपमेंट इस से कम कैसे है। इस क्षीण भाव से शहर हमें भीड़ में धकेलता है। शहर में बचे रहने की सम्भावना के लिए हमनें पार्क,मार्केट,मॉल और भी कई कोने ढूंढ लिए है। अपने को पीठ पर लादे हुए इधर से उधर घूमना शहर में रवायत है। मिल जाने की सम्भावना के साथ ही तो हम लगातार इन शहरों में अपने से जूझ रहे है। आप कभी फ्लाईओवर पर खड़े होइए और देखिये शहर को फिर सोचिए क्यूँ दिल फ्लाईअवे हो जाना चाहता है।

संजीदा से ख्वाब

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मेरा ख्वाब क्या है , पहाड़ की तलहटी , नदी को सुबह जाकर बहते सुनना , रात को चाँदनी रात में बर्फ वाला पहाड़ निहारना, पहाड़ की गुफा के किनारे लगा फ़ूस का बिस्तर , नदी किनारे सुबह-सुबह पानी में पैर डालकर  दुष्यंत की कविताएँ पढ़ू .........  और हाँ रात में किसी बर्फ पहाड़ी रास्ते में बिस्तर बिछाकर  ये गुनगुनाना.   पेड़—पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे                                                                                      रास्तों में एक भी बरगद नहीं।                                                                                                                    संदीप 'विहान' 

अश्लील समाज की औरतें

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हाथ में आधे हाथ का आधा शादी का चूड़ा पहने जाती औरत, चाय की दुकान के सामने खुले स्नानागार में सहजता से नहा रही औरत , सुबह-सुबह दो बैग लेकर कंधे पर उचकाती  जाती औरत, स्कूल की तरफ जाते हुए पानी की बोतल से पानी पीती लड़की , कपड़ों की गठरी को लेकर जल्दी से दुकान की तरफ भागती औरत , सुबह सुबह सूर्य को जल अर्ध्य देकर मनाती औरत, उम्र के शायद सतहरवें पड़ाव पर पार्क में बैठी मुँह में कुछ बुदबुदाती वो औरत, घर के बाहर झाड़ू निकालती धूल धूसरित वो औरत, सब सामान्य तो नजर आ रहा है सुबह में , माफ़ कीजियेगा ये अश्लील समाज की औरतें है जो खुद तो कुछ कहती नजर नहीं आ रही किसी को, लेकिन अश्लील समाज इन्हें लील रहा है । इस कविता को सुबह 6 बजे की चाय पीकर आने के बाद लिखा। यह भी नही पता की क्यूँ लिखा । मुझे अंतिम  पंक्ति भी ठीक नही लग रही। लेकिन जिस तरह ये बुनी है, वो आपके लिए मेरे लिए है। और हाँ मैं भी वही घृणित समाज हूँ, कोई और नही। मेरी वैचारिक प्रतिस्पर्धा मेरे से ही है। अजीब कशमकश है गद्य क्यूँ नही लिख पाता। इस सवाल को जरूर ढूंढूगा।

एक और सफर

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ट्रैन की सीढ़ियों पर बैठकर सफर करना, चाँद से आगे ट्रैन निकल जाएगी ये सोचना , सिर्फ मैं इस तरह का स्वर हूँ ये सोचना , किसी शहर में ट्रैन का रुकना और धम्म से उतर जाना, पटरियों पर भागने की कोशिश करना , किसी जगह सिगनल पास की उम्मीद और  वो गाँव निहारना जहाँ ट्रैन रुकी है , उस महाराष्ट्रीयन औरत को लकड़ी ढ़ोते देखना , उस ओझा की आँखों का कोई जादू मंत्र , फिर ट्रैन में सोते दोस्तों को देखना, और सुबह 6 बजे की चाय उगते सूरज के साथ , और एक बात जिस के साथ सफर किया मैंने  सब सुहावना था..........  संदीप विहान 

जब दिमाग बच्चा था और दिल बड़ा

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मन वहाँ लौटना चाहता है , जहाँ दिमाग काम नही करता था, दिल की सुनकर इधर उधर भागते रहते थे, कुछ कहते थे हम भी नही और दूसरे भी नही समझते थे, अक्सर खतरे  के बारे में भी पता ही नही होता था की क्या होता है, धर्म, जाति, लिंग, रंग, प्रेम,सपने, पड़ोसी, अपने सब ही तो एक ही थे हमारे लिए ,                सोचता हूँ कितना अच्छा था सब कुछ जब हमें इस दुनिया की सच्चाईयाँ नही पता थी   ...........  संदीप 'विहान'

लिख रहा हूँ

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मुझे पता नही छूटना क्या होता है। बहुत कुछ पीछे छूट गया। बहुत पीछे छोड़ के आगे बढ़ गए। लेकिन मैं वही रुका हूँ।सच कह रहा हूँ मुझे नही पता।शायद उन् सबको पता है जो मुझे एक अवसाद की तरह छोड़ चुके है।जहा मैं रुका था, वहाँ से कई सो मील भाग चूका हूँ। लेकिन मैं मैदान और पहाड़ के के बीच की ये दुरी पाट कर किसी पहाड़ी पर अब तक नही पहुँचा हूँ। यहाँ इति सिद्धम की लड़ाई है। यहाँ मेरी इस आँख ने दुरी आँख से आँख चुराई है। लोग समझदार हो गए है, नही लोग सचेत हो गए है। पशोपेश में मैं जाने क्यों संजीदगी की अपेक्षा करता हूँ। शिक्षा ने सचेतों को दिमागी हत्यारें बनाने का काम किया है। अम्मा यार झूठ तो मत बोलो ! सीधा कहो ! कि ये वाली चटनी सिलबट्टे की नहीं है, ये तो मिक्सी ग्राइंडर में पीसी है। तुम इसकी महीनता का झाँसा देकर खुश हो। और मैं तुम्हारे इस झाँसे में आकर खुश हूँ। मैं खुश हूँ तुम्हारी खुशी देखकर ।  जैसे ही मैं इस सचेतता की बात कर रहा हूँ  तो ये भी कह रहा हूँ कि इतिहास तुम लिखोगे। मैंने एक समय तय किया था की मैं मौन रहूँगा उसके बाद मैंने ये नही सोचा की कोई क्या सोच रहे हो। मेरी प्रश्नावली नही बन पा रही

एक और पुरानी तरह का नया साल

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ये 31 दिसम्बर की पोस्ट है जिसे मैं आज पूरा कर रहा हूँ।उस दिन का पूरा समय साल को विदाई देने में बिता। ये कोई निश्चित नही था की मैं इस दिन को ऐसे ही बिताने वाला था।साल को विदाई देने का निश्चय एक तोरण खरीदने को लेकर हुआ। इस उम्र में मैं और मेरे जैसे कई अपना दिन बचाने को निरंतर लगे रहते है। लेकिन दिल्ली की इस भीड़ में मेरे बुद्धिजीवी टाइप दोस्त शुद्ध ऑक्सीजन है। कल जब हम  यूनिवर्सिटी के करीब वाले  बाज़ार में तोरण ढूढनें निकले तो दिमाग में कोई और पोस्ट थी जो लिखनी थी। पर  घूमते हुए एक दोस्त ने अपनी भावनात्मक बात रख दी। (देखो अब पोस्ट बदल गयी साहित्यिक होने ज़्यादा मैं यह छीछालेदर लिखने वाला हूँ।) वैसे ये भावना हम देश,समाज बदलने वाले टाइप वाले लोगों में रहती हैं।और हाँ कुछ इलीट बिहेवियर वाले लोगों में भी होती है।मल्टीलेवल पार्किंग की दुहाई देने वाली सरकार की धोखेबाज़ी के नमूने उस मॉल के सामने वाली गली उस दोस्त ने एक पंक्ति चस्पा दी। उसने कही ये इंग्लिश में थी लेकिन हिंदी में बताने की की कोशिश कर रहा हूँ। पंक्ति ये थी की यहाँ दिल्ली यूनिवर्सिटी के इस मीना बाज़ार में बहुत ज़्यादा स्ट्रीट चिल्