अलविदा से पहले कुछ कहना है

प्रिय शचीन्द्र ,
तुम्हारे ब्लॉग पर नई पोस्ट पढ़ के झटका लगा की तुम ब्लॉग से छुट्टी ले रहे हों।इस महानगर में कमरे के किसी कोने में तुम जिन सपनों को अपने ब्लॉग पर उतार लेते हो,मैं हमेशा से उसका मुरीद हूँ । तुमने मुझे वो अंगूठी फेंकनें को कहा था ना, शायद वो मैं पूरी ज़िंदगी न फेंक पाऊँ ।लेकिन तुम इरादों के पक्के हो तुम इस नई अंगूठी को फेंकना चाह ही रहे हो तो ठीक है।हाँ तुम्हारें सार्थक ना होने का गुस्सा भी नजर आता हैं।लेकिन तुम्हारी परिधि मुझे इस से बड़ी लगती है। मैं एक औसतन दर्जे का पाठक रहा हूँ जो एक सामान्य सी समझ रखता है। लेकिन इस्माइल दर्ज़ी की दुकान  में मैं कितनी बार जा चूका हूँ ये मुझे ही पता है। वो लाल दीवारें जब मुझे खाये जा रही थी तो तुमने दख़लअंदाज़ी बढ़ाने को कहा। मैं सीरियस नही हो पाया उस समय  लेकिन तुमने लहरों और सोचालय का पता देकर मुझे अंगूठी फेंकने के लिए तैयार कर दिया। और हाँ  उस दिन की साँझा यादों का जिम्मा तुम्हारा है। ''म ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहाँ हम ख़ुद नहीं जानते कि यह दौर हमारे साथ क्या कर रहा है।'' ये तुम्हारी लिखी पंक्तियाँ हैं। जब तुम सब कुछ जानते ही हो तो ये जाना हमारे लिए कुछ अपना सा छूट जाने सा है। ये एक ऐसे लड़के की डायरी है जो बहुत सी बातों को लेकर संजीदा है। देखो मुझे तुम्हारे जैसा ना लिखने की जलन भी होती है।लेकिन मैं उम्र भर यूँ ही जलना चाहता हूँ इस तरह का साहित्यिक जलन प्रेरणा स्रोत होता है। चलो तुम्हारी तरह बहुत ज़्यादा नही लिख पाउँगा लेकिन कोशिश करूँगा। पर डायरी जरूर लिखते रहना क्युकिँ वहा सब कुछ समेटने का स्पेस रहता हैं जो पब्लिक टाइप में लिखने के दबाव से दूर रहता है।याद रखना महानगर तुम्हारे सामने  रोज नये सवाल खड़े करेगा और अगर तुम उनके सवालों को नजरअंदाज करोगे तो  ये महानगर तुम्हे निगल जाएगा। ऐसा मैं सोचता हूँ। और हाँ शायद यूनिवर्सिटी की उन दीवारों को भी देखने आया करो जिनका चुना लगातार झड़ रहा है।ये वो दौर हैं जहाँ अनिल सदगोपाल ,कृष्णकुमार  दोनों के साथ रह के समझ के आईने में बार बार अपनी सूरत देखनी है।तुम्हारें अदभुत लेखन के नए पन्नों को शुभकामनाएँ। 

तुम्हारा पाठक 
विहान। 




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