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वक्त में परिवार

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अभी मेट्रो से आ रहा था। एक दपन्ति जिनकी उम्र 20 से 25 के बीच रही होगी। उनके दो बच्चे थे। जिनमें डेढ़ या दो साल का अंतर रहा होगा। मेट्रो में मेरी सााइड वाली सीट पर बैठे थे। क्योंकि जेंडर का इतना  विमर्श पढ़ा है तो मन मे कई सवाल आ रहे थे। सवाल यूँ ही नहीं आ रहे थे वो चेहरे और चेहरे में घुमड़ रहे बादलों के बीच उनकी ज़िंदगी को टटोल रहे थे। पति पत्नी दोनों अपने अपने घरों में बड़े होते हुए, पिताओं के द्वारा ब्याह दिए गए। इतनी जल्दी विवाह के बाद दोनों पर समाज के दवाब रहे होंगे। फिर जवान होते लड़कों में सेक्स की जो समझ बनती है शायद उसमें बच्चे नही होते। लेकिन उसके बाद का परिणाम बच्चे होते है जो उनकी सोची समझी रणनीतिक तैयारी नही माना जाना चाहिए। अब बात ये है कि उन दो को शिशु से बालपन तक के लालन पालन की जिम्मेदारी का दबाव उस माँ पर होगा। इस बीच वो पिता बन चुका अल्हड़ किशोर भी शायद अपने पिता होने के सामाजिक दबावों को महसूस कर रहा होगा। दबाव इसलिए कह रहा हूँ लड़कियों की तरह सामाजिक जिम्मेदारी और दबावों को लेकर वो जन्म होते ही महसूस नही करते। मेट्रो में माँ थकान के साथ बैठी है। एक बच्चा प्लास्टिक

खुद में लौटते हुए

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बलदेव कृष्ण वैद्य का उपन्यास उसका बचपन पढ़ते पढ़ते अपने को उकेरता हूँ तो बचपन के उस हिस्से में लौटना चाहता हूँ जिस हिस्से का वक्त मैंने दोस्तों के साथ बिताया। अब यही हिस्सा है जिसमें बलदेव अपने उस बाल पात्र को परिवार की कहानी से नही निकालते। जब हमारे सांस्कृतिक परिवेश में बचपन बड़ों से बंधा हुआ होता है। तो उस बचपन को बचपन बनाये रखने में बाल मनोविज्ञान क्या करता है? वह शायद अपने आसपास उस पात्र की संरचना बनाने में लग जाता है जो उसके साथ उसकी तरह से जिये। जीने के इस क्रम में वो जो करीबी होता है उसे दोस्त की संज्ञा में अपने पास पाता है। यह जो मैं कह रहा हूँ शायद यह औसत पुरुष बालमन के बारे में कह रहा हूँ। दोस्त को मैं अपने बचपन का रचनात्मक सेल्फ(क्रिएटिव सेल्फ) मानता हूँ। जब घर वाले या स्कूल मुझे लगाम में बांधते थे तो मेरा यही सेल्फ मेरी लगाम में मेरे साथ भागता था। जैसे पढ़ाई या रोज रोज का होमवर्क मेरे से नही होता था तो मेरा दोस्त रोज रोज स्कूल पहुँचते ही हर आने वाले पीरियड या खाली वक्त में मेरी कॉपी के पन्नों को पलटता था। इस ज़िद में की किसी तरह मैं पिटाई से बच जाऊं। लेकिन मैं उसे इस माम