खुद में लौटते हुए
बलदेव कृष्ण वैद्य का उपन्यास उसका बचपन पढ़ते पढ़ते अपने को उकेरता हूँ तो बचपन के उस हिस्से में लौटना चाहता हूँ जिस हिस्से का वक्त मैंने दोस्तों के साथ बिताया। अब यही हिस्सा है जिसमें बलदेव अपने उस बाल पात्र को परिवार की कहानी से नही निकालते। जब हमारे सांस्कृतिक परिवेश में बचपन बड़ों से बंधा हुआ होता है। तो उस बचपन को बचपन बनाये रखने में बाल मनोविज्ञान क्या करता है? वह शायद अपने आसपास उस पात्र की संरचना बनाने में लग जाता है जो उसके साथ उसकी तरह से जिये। जीने के इस क्रम में वो जो करीबी होता है उसे दोस्त की संज्ञा में अपने पास पाता है। यह जो मैं कह रहा हूँ शायद यह औसत पुरुष बालमन के बारे में कह रहा हूँ। दोस्त को मैं अपने बचपन का रचनात्मक सेल्फ(क्रिएटिव सेल्फ) मानता हूँ। जब घर वाले या स्कूल मुझे लगाम में बांधते थे तो मेरा यही सेल्फ मेरी लगाम में मेरे साथ भागता था। जैसे पढ़ाई या रोज रोज का होमवर्क मेरे से नही होता था तो मेरा दोस्त रोज रोज स्कूल पहुँचते ही हर आने वाले पीरियड या खाली वक्त में मेरी कॉपी के पन्नों को पलटता था। इस ज़िद में की किसी तरह मैं पिटाई से बच जाऊं। लेकिन मैं उसे इस माम