ल्हासा की माँए



                                                                                 

अपने शिक्षायी जीवन शुरू होने से लेकर शोध छात्र होने तक एक नागरिक बनने का लम्बा सफर तय किया। हमें एक तयशुदा प्रक्रिया के तहत अच्छे नागरिक होने के गुणों को शिक्षा ने हमारे अंदर पैदा  किया। लेकिन  कई बार जीवन के कई प्रस्थान बिंदु आपको सोचने को मजबूर कर देते है। ऐसा ही मेरी पिछली यात्रा के दौरान हुआ। यात्राएं आपको कई बार कितना झकझोर देती है ये मैंने अपनी पिछली धर्मशाला -मैक्लोडगंज  की यात्रा के दौरान जाना। जब मैं  अपनी पर्यटन यात्रा के दौरान  अतुल्य भारत को देखकर गौरान्वित महसूस कर रहा था तभी मुझे मैक्लॉडगंज  में एक अविस्मरणीय  जगह देखने का मौका मिला। ये जगह अपने आप में  तिब्बत  को  आँखों के सामने ला देती है।  यहाँ पर तिब्बत से निर्वासित लोगों की सामूहिक बस्ती  के माहौल को देख सकते है ।यहाँ एक छोटा-सा तिब्बत बसता  है । यहाँ  पर रहने वाले तिब्बती लोंगो  का धीर गंभीर स्वभाव देखने को मिलता है। तिब्बती लोगों की बस्ती के माहौल में उनकी मिट्टी की गंध को सूंघ  सकते है।ये  निर्वासित जीवन उनकी आशाओं  के पुञ्ज  को लगातार प्रज्जवलित  वो एक दिन अपने देश में अपनी जमीं पर दौबारा लौटेंगे ।तिब्बती मंदिर के प्रवेश द्वार से वो सिर्फ पूजा का स्थल नही रह जाता वो  तिब्बतियों की  हक़  की लड़ाई का प्रेरक स्थल भी  है। इस मंदिर में प्रवेश के साथ ही आपको तिब्बती संग्रहालय  के दर्शन होते है। जहाँ पूरी तिब्बत संघर्ष  को विस्तार से प्रदर्शित किया  है. ये मंदिर  आम धार्मिक स्थल से हटकर क्रांति के प्रतीक स्थल को समझने का मौका देता  है ।मंदिर में  आध्यत्मिक शांति के बाद भी  वहाँ क्रांति की गूंज  सुनाई  देती है । जब आप ऊपर बने मंदिर के मुख्य भवन में पहुँचते हो तो आपको लाल गेरूएं वस्त्रों में बैठे बुजुर्गों का हुजूम देखने को मिलता है, जिसमे स्त्री एवं पुरुष दोनों समिल्लित हैं। मुख्य मंदिर  के भवन में बुद्ध  की विशाल प्रतिमा तथा एक कमरे में सैकडों दीपक प्रज्ज्वलित  है। यहाँ बैठे बुजुर्ग जिनमे महिलाओं की संख्या ज़्यादा थी  उनकी आँखों में निर्वासित होने के दुःख की चुप्पी साफ़ नजर आती है। वे अनवरत बुद्ध को ल्हासा चलने के  लिए  मनाती नजर आती है। ल्हासा की ये सैकड़ो माएं सुबह मंदिर  आती है और शाम ढ़लने  घर लौटती है ।इन माँओं का की आँखों  के सपने निरंतर अपनी धरती पर जाने की बाँट जोह रहे है। जहाँ इनके बेटे -बेटी ,नाती-पोते दुनिया की छत पर अपने सपनों को जी सके।मै बार  बार बुद्ध की विशाल प्रतिमा को देखता फिर उन माँओं को। मस्तिष्क में यही आ रहा था जब चीन के  भी कोई बुद्ध है तो वो उनसे क्यूँ नही कह देते की वो माएं अपनों बच्चों के लिए एक शांत ज़िंदगी चाहती है। जहाँ वो याक के साथ अपना जीवन अपने परिवार के साये में बिताती । किसी देश विशेष की नागरिकता एकबारगी में उन्हें विकास का सुख दे भी दे लेकिन उनके सपनों को पूरा करने के लिए उन्हें अपनी मिट्टी की खुशबु में रचना बसना है।आधुनिक राज्य कल्याणकारी हो सकते है लेकिन उन्हें लोगों की जिजीविषा को भी समझने की जरूरत है।चीन तिब्बत को विकास दे सकता है लेकिन माँओं को तो सिर्फ अपने बच्चे चाहिए  वो प्यार कर सके।जब मुझसे रहा नही गया तो मैंने दो तीन महिलाओं से बात करने की कोशिश की लेकिन शायद वो मेरी भाषा नही समझ पायी। लेकिन उनके हर भाव में निर्वासित होने के दुःख की नियति होने के साथ ल्हासा के पहाड़ों सा विश्वास भी था की वो एक दिन अपने घर लौटेगी। मैंने भी अपनी नास्तिकता को तोड़ते हुए भगवान बुद्ध से दुआ माँगी की  माँओं के विश्वास को पूरा करे।कितना बुरा है एक राज्य होना भी जहाँ  लकीर किसी माँ ने नही खीचीं लेकिन  ध्यान में रखने वाली बात ये है हम भूमि को माँ कहते है। 




  

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