बदली बदली सी प्रकृति

                                                         


जब मनुष्य ने अपने आधुनिक होने के मायनों के चलते लगातार इस प्रकृति को बदला है  तो मनुष्य को भी प्रकृति के बदलने पर आश्चर्य या दुःख प्रकट नही करना चाहिए।  पिछली कुछ  सदियों  में विकास के नाम पर इस प्रकृति ने इतना सहा है। ये जब बदलती है तो  ये मनुष्य सिहर जाते है। प्रकृति में हर वस्तु का  प्रस्फुटन स्वयं में होता है किसी को हानि पहुचाए बगैर।  लेकिन ये मनुष्य प्रजाति शुरुआत से ही इतनी संवेदनहीन है की ये सबके पल्लवन  की दिशा तय करने की कोशिश में रही है। जब चिड़ियाँ ने अपना घोसला बनाया तो उसने पेड़ का ध्यान रखा।  जब किसी पेड़ ने कभी अंकुरित होना चाहा तो उसने मिटटी का ध्यान रखा । जब मछली ने तैरना चाहा तो समुंदर का ध्यान रखा। जब समुंदर  की लहरों ने  फैलना चाहा तो किनारों  में सिमट जाना ध्यान रखा।  इस तरह प्रकृति में सजीव और निर्जीव दोनों ने एक दूसरे का ध्यान रखा। सहअस्तित्व के इस भाव ने  धरती या इस प्रकृति को ज़िंदा रखा।  लेकिन  मनुष्य ने अपने  स्वार्थों  के लिए  प्रकृति का सतत दोहन किया। पेड़ों को काटकर  मकान बनाए। संसाधनों के नाम पर धरती का सीना बार -बार चीरा।  मिट्टी की खुशबू को सड़को ,इमारतों,मकानो दुकानों के नाम पर ढ़क  दिया । प्रकृति ने अपने को बदला तो कही जी भर के बारिश लाई,कही नितांत अपने को सूखा रखा। कही इसने किसी ज्वालामुखी से अपना दिल दहलाया तो कही भूकम्प  से धरती को हिलाया । प्रकृति की इस निष्ठुरता से मनुष्य का दिल सहम गया। ये प्रकृति का प्रस्फुटन है ये उसकी स्वभाविकता का हिस्सा है। इसमें मनुष्य की तरह का लोभ निहित नहीं है। वो सृजन कर रही आसमान से लेकर धरती तक।  इसके सृजनहार स्वरूप में अगर मनुष्य के स्वार्थ बिखरते नजर आ रहे है तो  सोचने की आवश्यकता है की सहअस्तित्व की संकल्पना को कैसे बढ़ाया जाए। आदिवासी जिन्हें हम पारम्परिक मानते है उन्होंने सही मायनों में प्रकृति के साथ लम्बे ऐतिहासिक काल में सहअस्तित्व की संकल्पना को जीवित रखा है। उन्होंने प्रकृति से उतना ही लिया जितने की आवश्यकता थी वो भी उसे बिना हानि पहुँचाए। लेकिन राज्य आधारित स्वरूप में हमने प्रकृति को बाँट लिया। विकास के नाम पर बांध बनाकर कही उसके निर्झर जल को रोका तो कही पर बसावट के नाम पर कंक्रीट के जाल बिछा दिया। प्रकृति की सांस को लगातार अवरुद्ध कर दिया। पिछले सालों  में विश्व में जगह जगह हमने प्रकृति में आने वाले असमायिक बदलावों को मौसम,जलवायु ,भौतिक हलचलों के रूप में देखा। अब विश्व में सभी देशों को विकास के अर्थ प्रकृति के संदर्भ में समझने की जरूरत है। प्रकृति चाहती क्या है ? प्रकृति की चाहत स्मॉर्ट सिटी,बांध ,जमीन पर लगातार उगाये जा रहे उद्योगों  आदि में कतई नहीं है। उसकी चाहत है उसकी गोद में सब समान रूप से फले-फूले।ये फलना सिर्फ मनुष्य तक सिमित ना हो बल्कि सभी जानवरों ,पक्षियों ,पहाड़ों ,नदियों ,पेड़ -पौधों  आदि सब  रूपों में हो। जापान में आयी सुनामी हो,भारत में आया चक्रवात हो ,बाढ़ हो या सूखा हो या नेपाल में आया भूकम्प हो इन सभी प्राकृतिक आपदाओं में प्रकृति की मनुहार साफ़ नजर आती है।मनुष्य को समझना होगा की उसे विकास की फसल उगानी है जिसमे सिर्फ कोपभाजन के बीच तैयार होगे।या फिर प्रकृति को सहजने में जो मिले  उसमे आत्मसंतुष्टि प्राप्त करनी है। भविष्य की पीढ़ियों के लिए क्या हम सिर्फ त्रासदियों की थाली में असामयिक मृत्यु परोसने  की तैयारी कर रहे है ?हमें प्रकृति से प्रेम करना है न की प्रेमपाश में उसे बाँधकर  उसका दोहन। हमें अपने बच्चों को आधुनिक  मायनों में आदिवासी बनाना है जिन्होंने इस प्रकृति का सही अर्थो में सहेज कर रखा है.महात्मा गांधी ने सही ही कहा था की प्रकृति सब की इच्छाओं  को पूरा कर सकती है किसी एक के लालच को नहीं। 

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