माफीनामा बायीं तरफ दर्ज है



पूरा दिन यूँ ही निकल जाता है। सामने कई किताबें बिखरी है। क्रांति अब मेरे लिए मूकदर्शक है। पढ़ना जैसे कमरे में लगा मकड़ी का जाला हो गया है जिस पर धुल जम चुकी है। आजकल अपने पीछे एक ही समय में दो हाथों के सहारे अपने कान और आँखे बंद करके खड़ा हूँ।क्या पगडंडी तुम्हारी बनाई हुई है ? इस पर चलुंगा तो मुझे पता है तुमने चलने के लिए पक्की गली चुनी है। अपने में लौटने का इंतजार कर रहा वो शख़्स सिर्फ एक मूर्ति है जिसे इतिहासकार किसी संग्रहालय में ढूंढ के रखेंगे। पता नही उसे वो देख पाएंगे जिनके लिए वो आशान्वित है की एक दिन उसे वो देखेंगे। कुछ दिन के लिए समय हम में बीतना चाहता था तो फिर बीत गया तो उसकी स्मृति रेखाएँ भी हाथ में नही पढ़नी चाहिए। वैसे समंदर किनारे रेत में लेट जाने का मन होता है जब ज्वार चढ़ेगा तो मैं उसमे उतर जाऊंगा। फिर अनंतकाल तक उस मछली की आँखों में झाँकूँगा जिसमे इंसानी दुनिया नहीं होगी। भूगोल का छात्र होते हुए भी कहना चाहता हूँ की मैं पृथ्वी के किनारे -किनारे चलना चाहता हूँ। चलना भी एक रवायत है समंदर से लहरे लगातार चल कर आती है और किनारे पर आकर टूट जाती है।मेरा ये सब लिखना कह देने भर का प्रस्ताव नही है, ये क्षितिज को छूने का मन है। कोई तो ऐसा दिन होगा जिसमें आकाश और जमीन किसी बर्फ के सहारे मिले होगे और उन रिश्तों की ठंडक के बीच मैं क्षितिज की भौतिकता को महसूस करूँगा।किताबों के पन्नें पलटे जाने की रवायत भी नही निभा रहा। बहुत कुछ छोड़ना चाहता हूँ  पर विलासिता और इंसानी दबावों के चलते शायद छोड़ने को लेकर स्तब्ध होकर रह जाता हूँ। हाँ पिछले दिनों में पहाड़ों की स्थिरता से समंदर के चलायमान होने की स्थिति में आना चाहता हूँ।वैसे शायद पहाड़ के आगोश में कही समंदर का कोई किनारा है पर वहाँ इंसानी पैरों का दबाव न हो तो वहाँ जाने का मन है। फिर वहाँ  से एक ऊँची छलांग लगाऊंगा।हो सकता है वहाँ चट्टान हो या रेत की रिक्तता। दोनों ही स्थितियाँ मेरे लिए सहर्ष होगी।कई बार होकर भी न होना अच्छा होता है। हवा में तैरने का मन है क्या चाँद से भी कम गुरुत्वाकर्षण कम होगा जहाँ लम्बे समय तक बिन पानी वाली मछलियों के संग तैर सकूँ। स्थिति में लौटने तक परस्थिति में तैरना बुरा है।
(शायद जो भी लिखा है उसमे अपने में लौटने की तयारी है।डर दर्ज करना स्वयं के लिए एक डर है या साहस। पता नही  )


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