अश्लील समाज की औरतें
हाथ में आधे हाथ का आधा शादी का चूड़ा पहने जाती औरत,
चाय की दुकान के सामने खुले स्नानागार में सहजता से नहा रही औरत ,
सुबह-सुबह दो बैग लेकर कंधे पर उचकाती जाती औरत,
स्कूल की तरफ जाते हुए पानी की बोतल से पानी पीती लड़की ,
कपड़ों की गठरी को लेकर जल्दी से दुकान की तरफ भागती औरत ,
सुबह सुबह सूर्य को जल अर्ध्य देकर मनाती औरत,
उम्र के शायद सतहरवें पड़ाव पर पार्क में बैठी मुँह में कुछ बुदबुदाती वो औरत,
घर के बाहर झाड़ू निकालती धूल धूसरित वो औरत,
सब सामान्य तो नजर आ रहा है सुबह में ,
माफ़ कीजियेगा ये अश्लील समाज की औरतें है
जो खुद तो कुछ कहती नजर नहीं आ रही किसी को,
लेकिन अश्लील समाज इन्हें लील रहा है ।
इस कविता को सुबह 6 बजे की चाय पीकर आने के बाद लिखा। यह भी नही पता की क्यूँ लिखा । मुझे अंतिम पंक्ति भी ठीक नही लग रही। लेकिन जिस तरह ये बुनी है, वो आपके लिए मेरे लिए है। और हाँ मैं भी वही घृणित समाज हूँ, कोई और नही। मेरी वैचारिक प्रतिस्पर्धा मेरे से ही है। अजीब कशमकश है गद्य क्यूँ नही लिख पाता। इस सवाल को जरूर ढूंढूगा।
यह खोजना बहुत ज़रूरी है कि क्या है, जो रोकता है। कविता से आगे और उसके साथ गद्य लिखना होगा। उसकी तय्यारी कुछ कहीं से शुरू करनी होगी। अच्छा है, जितनी जल्दी हो सके करो।
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