खुद में लौटते हुए

बलदेव कृष्ण वैद्य का उपन्यास उसका बचपन पढ़ते पढ़ते अपने को उकेरता हूँ तो बचपन के उस हिस्से में लौटना चाहता हूँ जिस हिस्से का वक्त मैंने दोस्तों के साथ बिताया। अब यही हिस्सा है जिसमें बलदेव अपने उस बाल पात्र को परिवार की कहानी से नही निकालते। जब हमारे सांस्कृतिक परिवेश में बचपन बड़ों से बंधा हुआ होता है। तो उस बचपन को बचपन बनाये रखने में बाल मनोविज्ञान क्या करता है? वह शायद अपने आसपास उस पात्र की संरचना बनाने में लग जाता है जो उसके साथ उसकी तरह से जिये। जीने के इस क्रम में वो जो करीबी होता है उसे दोस्त की संज्ञा में अपने पास पाता है। यह जो मैं कह रहा हूँ शायद यह औसत पुरुष बालमन के बारे में कह रहा हूँ।
दोस्त को मैं अपने बचपन का रचनात्मक सेल्फ(क्रिएटिव सेल्फ) मानता हूँ। जब घर वाले या स्कूल मुझे लगाम में बांधते थे तो मेरा यही सेल्फ मेरी लगाम में मेरे साथ भागता था। जैसे पढ़ाई या रोज रोज का होमवर्क मेरे से नही होता था तो मेरा दोस्त रोज रोज स्कूल पहुँचते ही हर आने वाले पीरियड या खाली वक्त में मेरी कॉपी के पन्नों को पलटता था। इस ज़िद में की किसी तरह मैं पिटाई से बच जाऊं। लेकिन मैं उसे इस मामले में बहुत निराश करता था। स्कूल के बाद घण्टों सड़क किनारे बैठकर मैं और मेरे दोस्त वक्त बिताते थे। वही सुकून होता था। वरना दुनिया हमें पूरी तरह से एक परिपक्व पुरुष बनाने में लगी रहती थी जिसमें हमें एक बचपन से ही एक ब्रेडविनर या कहूँ कमाऊपूत के रूप में बड़ा होना होता है। जिस समाज के हम बड़े हुए उसमें पितृसत्तात्मक बनते हुए बड़े हो रहे थे, घोर लिसलिसपन से सने हुए कामुक पुरुष के साथ बड़ें हो रहे थे, श्रेष्ठतम की आपाधापी में झोंक दिए गए थे। और पता इन सबमें मैं भी उतना ही शानदार ढंग से बनता हुआ बड़ा हुआ जो मुझे शायद नही होना चाहिए था। लेकिन मेरे आसपास के करीबी समाज मे यही मुझे होना था, ये ममेरा चयन नही था। 
खैर फिर मैं दोस्त वाली बात पर लौटता हूँ। दोस्तों या दोस्त के साथ कुछ ऐसा था जिसमें मैं अपनी दुनिया सा कुछ बुनता लेकिन इस बुनावट के बाद आपके पास शानदार नक्काशी वाली चादर होगी ऐसा नही होता।
सुकून भी कोई चीज़ है जो अपने दोस्त के साथ मैं ढूंढ लेता था। और असफलता के तमगे जो सब देते रहते थे आलसी, ढीला, बेवकूफ़ आए भी ना जाने क्या क्या के साथ बड़े होते होते मेरे हिस्से के मैं में मेरा दोस्त और मैं ही बचे होते थे जो घण्टों बात करके इस दुनिया के उसूलों को नकारने में लगे रहते थे। इसकी कीमत बचपनके बहुत चुकाई कभी घर वालों का गुस्सा, तो कभी स्कूल वालों का गुस्सा हम पर उतरता। फिर सब कहते हम बिगड़ गए है। ये जो मेरे बचपन का बिगाड़ या बिगड़ना है वो ही मेरे सबसे कीमती पल है। जिस बिगड़ना में शायद हमनें अपने को उस तरह नही गढ़ा जैसा सब चाहते थे।
मैंने अपनी असफलता को ढ़ोया और एक औसत लड़के से भी कम के रूप में मैं बड़ा हुआ। 
अब इन सब के बीच से निकलते हुए मेरी और मेरे उस दोस्त की दुनिया क्या थी इसका हिस्सा उसका बचपन से गायब है और मेरे बचपन के हिस्से के रूप में है जिसे मैं दोस्त कह रहा हूँ। जो मैंने कभी नही छोड़ा।

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