अपने को लिखना है।
अपने से गुजरते हुए अब सोच रहा हूँ लिखू। वैसे लिखना मेरे लिए असाध्य और असाधारण क्रिया रही है। लिखने का सबब होता भी था तो सोचता था कि अपने मन का लिखूं लेकिन अपने मन का न लिखने का प्रशिक्षण हमनें स्कूल में लिया और ये मुझमें कही रम गया है। खुद इस बीच सोचता हूँ कि अब बहुत पढ़ना हुआ, अब एक सिरे से लिखना भी होगा। इस दौरान इतना कुछ हो रहा है मेरा ना लिखना भी बेमानी है।
लेकिन हाँ अपने लिखे को घसीटना नही है। इतने सारे संघर्ष बेजुबान मर रहे है। एक बेहतर देश जिसके सपने में सबको उतनी रोटी नसीब हो जितने भर की इच्छा मैं रखता हूं तो लिखना ही होगा। कितने लोग हमारे लिए खर्च होते जा रहे है कही बस चलाता ड्राइवर मुझे मेरी मंजिल पर सही वक्त पर पहुँचा रहा है, कही एक मजदूर रबड़ के जूते पहने हुए गर्म तालकोर का डिब्बा लिए हमारे चलने का रास्ता बना रहा है, कही किसान देर रात से खेत में पानी दे रहा है ताकि वो भूख हम तक न पहुँचें और भी पता नही कौन कौन हमें ज़िंदा रखने में अपने को खपाये हुए है। मामला अगर किसी के पास होने का और किसी के पास न होने का है तो फिर उन सबके लिए लिखना है।
कई बार कई लेखों को पढ़ते हुए लगता है कि इनको दुरुस्त करने की जरूरत है। इतना कुछ है लिखने का लेकिन लिखने पर ऊर्जा मैंने खर्च नही की तो इस बीच मैं लिखना शुरू कर रहा हूँ।
उन तमाम इच्छाओं और सपनों को लिखना है जिसमें एक बेहतर दुनिया का सपना हो।
बधाई। अच्छा लगा, तुम वापस आने की सोच रहे हो। लिखो और उस तरह लिखो, जैसा तुम सोच रहे हो। बंधन नहीं, लिखना तो मुक्त करता रहा है हमेशा। यह सिलसिला चल निकले और हम तुम्हें लगातार पढ़ते रहें। यही कामना है।
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