अपने अंदर के क्लासरूम में

ये मेरा कॉलेज में दूसरा साल पूरा हुआ है। पहले साल से ज़्यादा उलझा-सुलझा महसूस करता हूँ. अपने  स्कूल टाइम में  भी कुछ समझ नहीं आता था मुझे।  आसानी से अपने सब्जेक्ट से निकल जाता था। जहाँ रुकता था शायद वो मेरे लिए सपनों की दुनिया होती थी. मेरा हिंदी का सब्जेक्टजिसकों अक्सर मैं घण्टों घण्टों पढ़ता था। मेरी इतिहास की किताबें और मेरी नागरिक शास्त्र की किताब। मुझे उनसे बहुत प्यार था  और है भी। अपनी तरह का इंसान हूँ जितना समझ आता था उसमें खुश होता था लेकिन आसपास के दबाव ने लगातार कमजोर बना दिया। ज़िन्दगी में एक अच्छी बात ये रही की दोस्त ज़िन्दगी से अच्छे मिले. तो अपने दिमाग से जूझते, लड़तें, झगड़ते जितना सीखा उसमें मुझे शक रहता था.वैसे ये क्यूँ लिख रहा हूँ मैं मुझे नहीं पता। लेकिन हाँ मुझे पता है की मैं ये क्यूँ लिख रहा हूँ। अब मैं एक शिक्षक हूँ। हमारे समाज में शिक्षक  की एक इमेज है,वो है नैतिक भार। लेकिन इस नैतिक भार को नहीं उठाये फिरता।  लेकिन अपनी कक्षा में खड़ा होता हूँ तो अपने शब्दों को लेकर सोचता हूँ की क्या कह रहा हूँ। अब कक्षा में पहले से ज़्यादा ध्यान से बातों को सुनता हूँ। लेकिन जवाब का क्या करू। हर बार पहली बार से मुश्किल होता है किसी सवाल का जवाब देना। मुझे लगता है अपने से एक चीज़ मैंने सीखा है की जब तक जोड़ेगें नहीं तब तक छोड़ेंगे नही। डर लगता था मुझे स्कूल से। मुझे स्कूल के बाद की बेपरवाह धुप अच्छी लगती थी. मुझे याद है मुझे और मेरे दोस्त को कितना मजा आता था धुप में। 

 वो क्या है की मन में लगता है कुछ अधूरा ना छोड़ दूँ। इसलिए दिमाग में कोशिशों की उम्मीद ज़िंदा रहती है। इस दुनिया को देखने की नजरें  हम एक साथ पैदा करे। इसी के साथ मैं अपनी छात्राओं के साथ कक्षा  हूँ। अभी बनता हुआ क्षण हूँ मैं। और मैं ही नहीं हम सब बनते हुए क्षण है।

  हमारे यहाँ  तीसरे साल के पिछले बैच को मैंने पूरे साल पढ़ाया। मैं कक्षा में बताने नहीं जाता उलझाने जाता हूँ। सोचता हूँ सीधे-सीधे बताकर क्लास पूरी कर लूँ।  लेकिन  नहीं वो क्या है ना मन नहीं मानता। क्लास को मैं जहाँ से लेकर चलता हूँ  उनके दूसरी जगह लेकर खड़ा होता हूँ। इसलिए छात्राएं  मेरी क्लास से ज़्यादातर खफा भी रहती थी। कइयों ने बार बार आकर कहा भी की आप की क्लास में कुछ समझ सा नहीं आता। कक्षा का कोई निष्कर्ष नहीं होता।  पहली बार मैं डर गया कि अब क्या करू। फिर मैं अपने सपनो में जाकर अपनी कक्षा को बनाता हूँ।  ये मेरी पाठ  योजनाएं है। लेकिन सच में निष्कर्ष वाली कक्षा तो मैं  बिलकुल नहीं चाहता। मुझे ये भी पता है मेरे विषय में दोहराव बहुत है। लेकिन अभी सीखना बाकी है। 
 और हाँ आदत से मजबूर हूँ तो कक्षायी प्रयोग करता रहता हूँ। ये डॉक्यूमेंट्री का भूत मुझ पर सवार रहता है। पिछले साल बनवाई थी कुछ। सारी ही अच्छी थी। लेकिन एक समस्या थी की ग्रुप में हमेशा  कोई न कोई समस्या रहती थी। इस बार सोचा की अपनी अपनी सहूलियतों से लोग ग्रुप बना ले.इसमें तो शायद और दिक्कत आयी। लिखने एक तरह का रिवाज़ सा बन गया है। इसको तोड़ने के लिए इस विचार का प्रयोग किया गया था। एक  छात्रा  ने बताया भी की अनिल सदगोपाल सर से बात कर के मजा आया। अनिल सर का जमीनी स्तर पर बहुत काम है। कम से कम इस बहाने वो लोगों से मिल तो रहे है। कुछ तो सीख ही रहे होगें।
पता नही कितना सीख पाया और समझा पाया। लेकिन हाँ सीखने को जो मिल रहा है वो दर्ज हो रहा है दिमाग में. इस साल शिक्षक प्रशिक्षण  का जो रहा उसे बाद में जोडूंगा। अभी  उलझनों के साथ इतना ही। 

Comments

Popular posts from this blog

उसका ख्याल

सवाल पूछना है