वो अँधेरी दुनिया चाहते है

वो लड़ रहे है वो झगड़ रहे है 
ये करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा भी नहीं होगा 
फिर भी वो लड़-झगड़ रहे है   

क्यूँ वो एक दूसरे को अपनी पहचान देना चाहते है 
जब उनकी जीभ का स्वाद अलग है 
जब उनकों स्पंदन भी अपनी तरह का महसूस होता है 
जब सब कुछ वो अपनी तरह का करना चाहते है 
तो  शायद उन्हें पता होगा की दुनिया में रंग है 
अब उन्होंने क्यों इस दुनिया बैरंग करना चाहते है
अनंत बिंदु से इस दुनिया ने अपने को सबके हिस्से का गढ़ा है 
फिर वो क्यूँ  चाह रहे है की सब उन/उस जैसे हो जाए 
आखिर अपने स्वार्थों की खानापूर्ति का ये खेल क्यूँ 
 उन्हें सब रंगों को मानना होगा
वरना एक दिन सिर्फ अँधेरा होगा घोर अँधेरा 
फिर शायद खुश हो जाए 
मिट जाएगी इंसानी पहचाने
पहचानने के लिए सिर्फ बचा रह जायेगा अंधेरा  




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