और मेरा पहला साल


दिल्ली में अपनी अलग सी पहचान लिए हुए एक इमारत ने 1948 से अब तक बहुत कुछ गढ़ा है। इस इमारत की खास बात यह है की इसकी ईटे वही से नजर आनी शुरू हो जाती है जहाँ से धरती की सतह शुरू होती है ।मतलब इसकी मजबूती  जमीं से जुडी  है। ये इमारत बड़ी प्रखर है, बातूनी है, लड़ती है, झगड़ती है, मचलती है, सँवरती है और भी न जाने क्या क्या । यह इमारत जीती जागती स्त्री है ।इस इमारत का नाम मिरांडा हाउस है। यहाँ एक साल हो गया। अच्छा लगता है लड़कियाँ दुनिया रच रही है। जिन को आदमी द्वारा दुनिया आगे बढ़ाने का मुगालता है वो अपने पास रखिये।


पिछले साल की जनवरी को याद करता हूँ  तो याद आता है की दो औरतों को पढ़ते-पढ़ते मैं उनकी दुनिया में पहुँच जाऊँगा, इस को सोचना बहुत रूमानी है। एक उमा चक्रवर्ती हैं, जिनकी किताब 'जाति में पितृसत्ता' उस दौरान पढ़ के खत्म ही की थी और दूसरी प्रेम चौधरी जिन्होंने 'घूंघट वाली औरतों' की दुनिया को समझाया।

वैसे सोचता हूँ मनु भंडारी ने इसी कॉलेज में 'नई नौकरी' कहानी ताना-बाना बुना होगा। नंदिता दास ने इसी कॉलेज में अभिनय के कुछ अंदाज सीखे होगे। रोमिला थापर ने भी कॉलेज में कही इतिहास को परखना सीखा होगा। यहाँ की लड़कियों ने दुनिया की फ़ेहरिस्त में अपना अलग मुकाम बनाया है।ऐसा मैं तारीफ़ में नहीं कह रहा।लड़कियां किसी न किसी कार्यक्रम को रचने का क्रम जारी रखती है। कॉलेज में जो ऑडिटोरियम के साइड वाली दीवार है उस पर सब ने अपनी रचनात्मकता का विवरण दे रखा है।

मैं जिस विभाग में हूँ वो प्राथमिक शिक्षक शिक्षा से जुड़ा है। नौकरी की मैं सोचता नही था। अचानक जनवरी की शाम को साक्षात्कार के लिए सन्देश मिला तो सोचा अपने को परखा जाये। वैसे मैं नौकरी करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नही था।
कृष्णकुमार सर के पास पहुँचा तो उन्होंने कहा की जहाँ तुम जा रहे हो वो जगह मेहनत की मांग करती है।शोध के समय दे पाओगे ? मुझे कुछ समझ नही आ रहा था। मैंने सोचा की जो पढ़ा है अब उसको एक दुनिया देनी है ।

पढ़ाने जाने से पहले की रात आसान नही थी मेरे लिए। जो पढ़ाना था पढ़ नही पा  रहा था। लेकिन डर ये था की मेरे शब्द किस तरफ उन छात्राओं की दुनिया को लेकर जाएंगे। लेकिन मैंने  अपने लिए जो पाठ योजना चुनी थी वो थी बेतरतीबी। क्योंकि जिस तरह हम इस दुनिया को तरतीब से देखते है वो स्थिर बिंदू के रूप में देखते है। वो रात बड़ी बैचेनी से बीती। कुछ दोस्तों से बात करके ये कोशिश कर रहा था की ये सोचू की जो होगा ठीक होगा। मुझे आज भी अपनी पहला लेक्चर याद है।पब्लिक स्पेस में बोलने का डर हमेशा रहता है वो भी मेरे साथ था।  कमरा नंबर 302 की तरफ़ जैसे जैसे कदम बढ़ रहे थे धड़कनें बढ़ती चली जा रही थी।अपने अंदर बार बार मैं कह रहा था की मैं क्या कह पाउँगा वो दुनिया जो मैंने पढ़ी और समझी है। कक्षा के अंदर आते ही मेरा भूमिका परिवर्तन हो गया। अब मैं शिक्षक था, बहुत गम्भीर स्वभाव के साथ में मैं अपनी कक्षा में था। सपनों की दुनिया में खड़ा था। सामने जो बैठे थे उनकी आँखों में सपने देखने की कोशिश कर रहा था। पर मेरी कक्षा की छात्राएं एक आम दिन की तरह कक्षा में बैठी थी। मुझे उनके सपने जानने थे ये सोचकर मैं आया था। लेकिन मैंने उनसे सपनों की दुनिया के बारे में कोई बात नही की।

कक्षाएं शुरू हुई। मेरा सीखना मेरी छात्राओं के साथ साथ शुरू हुआ। मैं रोज़ पाठ योजना बनाता रोज़ वो ढेर हो जाती। लेकिन मुझे डर रहता की मैं सीखने को परोसने से बचा लू ।मुझे याद है जिद्दू कृष्णमूर्ति पढ़ाने  के लिए मैंने पढ़ना शुरू किया तो मेरे पास प्रश्नों की लम्बी फेहरिस्त थी। मैं अपने से जूझ रहा था लेकिन कक्षा में किस तरह मैं अपने विषय को बुनूगाँ ये  मैं तय नही कर पाता था। कक्षा खुद अपने को बुनती थी। मैं इस बुनावट को अपनी एक मित्र के साथ बाँटता था।एक डर मेरे साथ हमेशा रहता है कही मैं उन्हें सुचनापट शिक्षण की तरफ धकेल दूँ।

नए सेशन में मुझे मार्गदर्शन के लिए प्राथमिक बालिका विद्यालय मिला जिसमें हमारी छात्राओं को प्राथमिक शिक्षण- प्रशिक्षण के लिए जाना था। वहाँ मैंने नई दुनिया महसूस की।मुझे याद है जब मैं पहली बार कृष्ण कुमार सर के साथ सुपरविज़न पर गया था तो उन्होंने कहा था प्राथमिक शिक्षण माध्यमिक कक्षाओं के शिक्षण से अलग तरह का है। मैंने पहली बार सुपरविज़न में गिजुभाई की उस दुनिया को अपनी छात्राओं के जरिये महसूस किया। बी.एल.एड में शिक्षिका प्रशिक्षण शिक्षका बनने के लिए विचारों की अपनी एक दुनिया की मांग करता है। मुझे याद आता है की छात्राएं कितने तरह के प्रयोग करती थी। उन्हें ये करता देख हमेशा लगता था की बेहतर दुनिया के लिए ईमानदार प्रयासों की जरूरत है। और हाँ उन टाइमपास शिक्षकों/ओं पर गुस्सा आता था जो कहते है की बच्चे पढ़ना नहीं चाहते। हम सब इस दुनिया में पहली बार आये है तो हमें बेहतरीन दुनिया रचने में उन बच्चों को समझना चाहिए जो प्रकृति को सीख रहे होते है।

पढ़ाने के पहले साल में मैंने उच्चशिक्षा में कदम रखा है। और मैं अपनी दुनिया में खोया रहने वाला इंसान हूँ। जिसने पहली बार सामने वाले की बात को बहुत ध्यान से सुनना सीखा। मैं किसी प्रश्न के स्थायी उत्तर में विश्वास नही करता तो जबाब की टोह अपनी छात्राओं से लेता हूँ। मानविकी लगातार जूझने का नाम है। आने वाले सालों में अगर मैं पढ़ाने के इस कर्म में रहुगाँ तो सुधार, बदलाव, संशोधन  अनवरत जारी रखूँगा। पहले साल की गलतियों के लिए क्षमा।

और हाँ वो जो रोहित वेमुला और स्टैंड विद जेएनयू के प्रोटेस्ट में दिखे थे। वैसे अपनी दुनिया तलाशते रहिये। सही गलत का फैसला हो जाएगा।

लिखने को बहुत से जज्बात है लेकिन कुछ अल्फ़ाज दिल में कही रखे है।

संदीप 'विहान'

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