विकास का रंगमंच



'' मैं सोचने पर मजबूर की हम सब क्या अच्छे और बुरे पीआर के शिकार भर है ? ''
इस पंक्ति के जरिये घर से लेकर बाहर तक जो हो रहा है ,या फिर देश से विदेश तक जो हो रहा है उसे देखने की 
कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन शांत रहने की कवायद में मैं निर्जीव होता जा रहा हूँ। लेकिन निर्विकार नही हो सकता ,क्यूंकि हाड़-माँस का बना हुआ जीव हूँ और वैज्ञानिक भाषा में इस हाड़ माँस के पुतले को होमो सॅपिएन्स कहते है। मैं चाहता हूँ की मैं भी निर्विकार होकर रहने का दैवत्व प्राप्त करू। फिर इसमें भी तो डर हैं की इसी निर्विकार के चलते सभी लड़ाइयाँ और शांति अपने स्थापित मूल्यों में पहुँची हैं जिसे  ईश्वर कहते है। अगर मैं सोचूँ और अपने को इस मैट्रिक्स से बाहर निकालूँ तो मैं घृणा विहीन या स्पन्दनहीन दुनिया की कल्पना करुगाँ। जिसमें जो हो रहा हो उसका आरोप दूसरे पर ना मढ़े।

 खालसा से मेरे कमरे तक रस्ता इस शहर के बारे में सोचने को मजबूर कर देता है।मुझे तो ये ही समझ नही आता की कर क्या रहे हैं ? हम अपने साथ !!! और जो कर रहे हैं उसमे स्त्री और पुरुष बराबर के भागीदार है। छितकुल जाने का मन है। बस्पा (नदी) भी पिछले साल वाले वेग में बह रही होगी 

वैज्ञानिकता का भाव इंसान को बनाए रखने के लिए था या इंसान ने वैज्ञानिकता को अमानवीय बना दिया है। जिस बस में मैं बैठ कर निर्धारित स्थान पर पहुँच रहा हूँ वहाँ पहुँचना इतना सुगम्य न होता। लेकिन विज्ञान ने यह कर दिखाया। उस जगह तक पहुँचने के लिए क्या-क्या ध्वस्त किया ये हम सामूहिक रूप से भूल गए। खैर भूल,भूल से ही होती है। विकास एक तरह की मानवीय आदत का नाम है। हमने न्यूनतम में जीने को भुला दिया है तो फिर जब अधिकतम आपदा से सरोकार होता है तो आसूं नही बहाने चाहिए। 

जरूर खोया-खोया चाँद प्रेम के प्रतीक के रूप में दिल्ली में ही उभरा होगा। ये खुद ही सोचिये ऐसा क्यों है। ताल को तो नदी में ही मिलना था और नदी को सागर में लेकिन आप ने अपनी सुविधाओं के लिए क्रम तोड़ दिया। अब आप ध्यान रखिये की वो सागर अपनी नदी को ढूंढते-ढूंढते आप के घर तक जरूर पहुँचेगा। तो बन्धु तैयार रखिये अपनी डोंगियों को  जीवन बचाये रखने के लिए। एक दिन विकास के रंगमंच पर प्रकृति अपने अभिनय के रंग जरूर दिखाएगी और आप हैरतअंगेज़ भी नही हो पाएंगे। क्योंकि इस नाटक के निर्माता आप है।   

ये पोस्ट दो समय को मिला रही है। आधी पहले लिखी हुई थी। आधी अभी पूरी हुई है, इस पोस्ट को क्या इसी तरह पूरा होना था। देखिये अब दिल जो दांस्ता कहेगा वही कलम पन्ने पर उतार देती है। वैसे हर बार ये सच नही होता। 



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