अभी मेट्रो से आ रहा था। एक दपन्ति जिनकी उम्र 20 से 25 के बीच रही होगी। उनके दो बच्चे थे। जिनमें डेढ़ या दो साल का अंतर रहा होगा। मेट्रो में मेरी सााइड वाली सीट पर बैठे थे। क्योंकि जेंडर का इतना विमर्श पढ़ा है तो मन मे कई सवाल आ रहे थे। सवाल यूँ ही नहीं आ रहे थे वो चेहरे और चेहरे में घुमड़ रहे बादलों के बीच उनकी ज़िंदगी को टटोल रहे थे। पति पत्नी दोनों अपने अपने घरों में बड़े होते हुए, पिताओं के द्वारा ब्याह दिए गए। इतनी जल्दी विवाह के बाद दोनों पर समाज के दवाब रहे होंगे। फिर जवान होते लड़कों में सेक्स की जो समझ बनती है शायद उसमें बच्चे नही होते। लेकिन उसके बाद का परिणाम बच्चे होते है जो उनकी सोची समझी रणनीतिक तैयारी नही माना जाना चाहिए। अब बात ये है कि उन दो को शिशु से बालपन तक के लालन पालन की जिम्मेदारी का दबाव उस माँ पर होगा। इस बीच वो पिता बन चुका अल्हड़ किशोर भी शायद अपने पिता होने के सामाजिक दबावों को महसूस कर रहा होगा। दबाव इसलिए कह रहा हूँ लड़कियों की तरह सामाजिक जिम्मेदारी और दबावों को लेकर वो जन्म होते ही महसूस नही करते। मेट्रो में माँ थकान के साथ बैठी है। एक बच्चा प्लास्...
होने की व्याख्या को जब करने की कोशिश कर रहा हूँ तो यह मुझे रोमांचित कर देता है. यह उन दिनों का होना भी है जब भरी गर्मी में अमलतास के फूल पिला रंग बिखेरे हुए होते है. यह उन दिनों का भी होना है जब दूब पर ओस की बूँद शिद्दत से लटकी हुई है. यह उन दिनों का होना भी है जब किसी सर्दी में जमी किसी नदी में पानी बह रहा होता है. यह उन दिनों का होना भी है जब मैं पहाड़ के उपर पहुँच कर हवा को अपने अंदर भर जाने की हद तक महसूस करता हूँ. वैसे दिल्ली में इस समय होना किसी गैस चैम्बर में होने से कम नहीं है. जिसमें मार्किट ने दिल्ली वालों का बता दिया है कि चिंता की कोई बात नहीं है हम आप को बचा ले जाएगे. लेकिन फिर होने को महसूस किस तरह हो ही जाता है. यह होना मन का होना है. जिसे मैं सूरते-बेहाल अपनी लूना के साथ महसूस करता हूँ. विश्वविद्यालय से निकलते हुए बंदरों के झुंड के पास उनको चिड़ा कर निकलते हुए. सिविल लाइंस की तरफ जाते हुए उस रास्ते को महसूस करता हुआ कही एक प्याली चाय के साथ ढेर सारी बातों में मैं होता हूँ. थोडा आगे बढ़ते हुए फ्लाईओवर पर चढ़ते हुए दूसरे आसमान में छलांग लगाते हुए मैं ह...
बहुत दिनों से ब्लॉग पर लिख नहीं रहा हूँ. दिन क्या महीने हो गए है. मेरी एम.फिल के कारण भी मैंने और काम स्थगित कर रखे थे. दोबारा लिखने से पहले मैं तरतीब में आना चाहता था. शायद उसके कुच तो करीब हूँ. बहुत दिनों से दिन का कोई ऐसा समय जब मैं घर पर अकेला होऊंगा तो लिखना अपने आप होगा ही. अब भी पास में पास में महाश्वेता की मास्स साब पड़ी है जिसको पढकर खत्म करना है. किन्द्ल में पैसेज टू इंडिया अधूरी पड़ी है. एक और किताब पढने को कोने में मेरा इंतजार कर रही है. शायद लोगों से रास्ता बनाना चाहता हूँ. क्यूँ के सभी सवालों का जवाब भी उन्हीं को बारी बरि से दूंगा, जब वो कभी जवाब मांगेगे. उपर लिखी पंक्तियाँ अभी इसलिए लिख गया कि अगर मेरी जिंदगी में दूसरी तरफ़ कुछ हो रहा होगा तो क्या ही हो रहा होगा. मुझे नहीं पता. फ़ोन पर घर वालों से कम ही बात करता हूँ. भाई...
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