कई दिनों से एक सवाल सामने रहता है। लेकिन इसको पूछा क्यों जाए? और न पूछना भी तो सवाल के साथ जीना दुश्वार कर देता है।अगर जवाब के घर का पता होता तो अपने सवाल को चीठ्ठी के जरिये जरूर पंहुचा देता। लेकिन ऐसे थोड़े होता हैं जवाब की एक दुनिया होगी। फिर मैं क्यों उस जवाब को अपने सवाल के इल्म की दुहाई दू। ये भी तो है इस सवाल के साथ बहुत कुछ कहना था फिर सवाल और फिर कहना दोनों नहीं हो पाता। सवाल के साथ मैं लाइब्रेरी में घंटो बिताता भी हूँ तो भी सूरत-ऐ -हाल वही रहता। जबाब परेशान है इसलिए तंग करना भी ठीक नही पर कोई बात चले तो जा पहुचे गी ग़ालिब की हवेली तक। वैसे भी आजकल कोई बैठकर शांति से बात कहा करता है। ये सवाल शायद मेरा कृष्णा सोबती की ऐ लड़की से है जो अभी पढ़नी बाकी है। यु भी सवाल के बहाने लिखना हो गया। वरना आजकल बस सोचना ही हो रहा है लिखना नहीं हो पा रहा।
मानवीय हो जाना जिंदगी के जब आप अर्थ ढूढ़ने लगते हो तो वह सबसे मुश्किल हालत में पहुंच जाती है। ये ओर भी मुश्किल हो जाता है जब आप किसी को ज़िंदगी मान लेते हो। इस ज़िंदगी का साँचा अगर ढलने की कोशिश कर रहा होता है तो हमें ये नही भूलना चाहिए की ये सब निर्वात में नही होता है। इसके लिए दिल, दोस्ती ,दारू, करियर , परिवार ओर भी न जाने क्या क्या है आपके सामने। आप अपने लिए जी ही नही रहे होते। आप जी रहे होते होते हो सबके लिए। अब एक ज़िंदगी में इतने मुश्किलात सवाल दसवीं क्लास के बोर्ड वाले गणित के एग्जाम से कम थोड़े ही है। अगर फेल हो गए तो दूसरों की बातें सुनने से पहले ही आप सोच सोच के मरने वाले हालात में पहुंच जाते हो। खैर मुद्दा ज़िंदगी था ना की कोई बोर्ड का एग्जाम। इस बार जिंदगी में जो सवाल मुझे मिला वो था एक मानव बनने का। पिछली लाइन पढ़ते ही आप सोच रहे होगे क्या मैं इस से पहले मानव नही था या निर्जीव चीज़ था क्या ?शायद मैं इस से पहले किसी और सवालात के जवाब को ढूढ़ने में मशगूल था। लेकिन मेरे लिए नया सवाल था मानवीय हो जा
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