उम्मीदों की पतंग
विश्वविद्यालय हमें दुनिया को समझने के नए आयाम देने के लिए होते है । लेकिन सोच को पंगु बनाने का काम भी आजकल विश्वविद्यालय ही कर रहे है , एक दायरे में सोच को लामबद्ध करके । खैर आप भी सोचते होगे की कौनसी नई बात लिख रहा हूँ । शिक्षा विषय का अकादमिक शोध छात्र होने के नाते बच्चों की दुनिया से मैं शिक्षा के समाजशास्त्र ,मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र की किताबों में एक सुन्दर सपने या समस्या की तरह रूबरू होता रहता हूँ । लेकिन जब आप सड़क पर निकलकर देखते है तो शास्त्रीय ज्ञान किताबों तक ही ठीक लगता है । कुछ दिनों पहले शाम को जब मैं टहलने के लिए हॉस्टल से निकला तो मैंने उम्मीदों की पतंग को उड़ते देखा । इस पतंग को उड़ाने वाला एक अल्हड़ बच्चा था। उसकी उम्र पांच या छह साल ही होगी । उसको देखने में दो चीजें कॉमन नजर आती थी एक उसके फटते कपडें और दूसरी उसकी फटती पतंग । उस बच्चे की पतंग उड़ाने की जगह थी गाड़ियों के तेजी और शोरगुल से भरी सड़क के किनारे बना फुटपाथ । फुटपाथ पर भी लोगों की आवाजाही चल रही थी । वो बेखबर बेलौस होकर इस मायावी संसार के बीच अपनी उम्मीद की पतंग को उड़ाने की कवायद में लगातार लगे हुए था । उसकी पतंग टकरा रही थी सड़क पर गाड़ियों से, लोगों से, सड़क के किनारे वाले खम्बों से और राहगीरों से ।लेकिन उसकी पतंग और वो दोनों ही कहा हार मानने वाले थे । बिना किसी विज्ञान को जाने वो बच्चा पतंग क धागे को हाथ में पकडे भाग रहा था वो भी बिना थके और पतंग भी बेधड़क उड़े जा रही थी । ये बालक मेरे लिए इतनी रोचकता का विषय इसलिए रहा क्योकिं वो उस सभ्य नागरिक समाज का हिस्सा है जिसमे बेखौफ अपनी उम्मीदों को आकाश में उड़ाने की कवायद बहुत मुश्किल होती है । वो बच्चा विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में होने का लुफ़्त उठा रहा था । वो देश जो आजकल उलझा हुआ है भूमि अधिग्रहण,चर्च की सुरक्षा, भ्रष्टाचार से देश को बचाने की साँस भरती पार्टी की चूहा बिल्ली वाली लड़ाई, मौसम की मार सहते किसानों की आत्महत्याओं,क्रिकेट विश्व कप के दुःख से उभरते लोगों में, सफाई कर्मियों की तनख्वाह की लड़ाई और भी बहुत कुछ में । जब सब बेखबर है तो वो क्यूँ इन उलझनों के तेज तर्रार मांझे को सुलझाए ।ये देश इसी तरह उलझा रहेगा इन लड़ाइयों में ,यही तो देखा है आजादी के बाद इस देश ने। यहाँ लोग भूल जाते है किसी गरीब का दर्द और लम्बे समय तक याद रखते है टेलीविज़न पर आये किसी सीरियल की दुखद कड़ी को। खैर सही भी है लड़ता रहे ये देश जाति ,धर्म, रुतबे और फलाँ फलाँ लड़ाइयां। वैसे भी लोग भूल जाएगे सब क्योंकि आईपीएल जो आने वाला है। तुम कोशिश करते रहो बस उम्मींदों की पतंग उड़ानें की।
विश्वविद्यालय हमें दुनिया को समझने के नए आयाम देने के लिए होते है । लेकिन सोच को पंगु बनाने का काम भी आजकल विश्वविद्यालय ही कर रहे है , एक दायरे में सोच को लामबद्ध करके । खैर आप भी सोचते होगे की कौनसी नई बात लिख रहा हूँ । शिक्षा विषय का अकादमिक शोध छात्र होने के नाते बच्चों की दुनिया से मैं शिक्षा के समाजशास्त्र ,मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र की किताबों में एक सुन्दर सपने या समस्या की तरह रूबरू होता रहता हूँ । लेकिन जब आप सड़क पर निकलकर देखते है तो शास्त्रीय ज्ञान किताबों तक ही ठीक लगता है । कुछ दिनों पहले शाम को जब मैं टहलने के लिए हॉस्टल से निकला तो मैंने उम्मीदों की पतंग को उड़ते देखा । इस पतंग को उड़ाने वाला एक अल्हड़ बच्चा था। उसकी उम्र पांच या छह साल ही होगी । उसको देखने में दो चीजें कॉमन नजर आती थी एक उसके फटते कपडें और दूसरी उसकी फटती पतंग । उस बच्चे की पतंग उड़ाने की जगह थी गाड़ियों के तेजी और शोरगुल से भरी सड़क के किनारे बना फुटपाथ । फुटपाथ पर भी लोगों की आवाजाही चल रही थी । वो बेखबर बेलौस होकर इस मायावी संसार के बीच अपनी उम्मीद की पतंग को उड़ाने की कवायद में लगातार लगे हुए था । उसकी पतंग टकरा रही थी सड़क पर गाड़ियों से, लोगों से, सड़क के किनारे वाले खम्बों से और राहगीरों से ।लेकिन उसकी पतंग और वो दोनों ही कहा हार मानने वाले थे । बिना किसी विज्ञान को जाने वो बच्चा पतंग क धागे को हाथ में पकडे भाग रहा था वो भी बिना थके और पतंग भी बेधड़क उड़े जा रही थी । ये बालक मेरे लिए इतनी रोचकता का विषय इसलिए रहा क्योकिं वो उस सभ्य नागरिक समाज का हिस्सा है जिसमे बेखौफ अपनी उम्मीदों को आकाश में उड़ाने की कवायद बहुत मुश्किल होती है । वो बच्चा विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में होने का लुफ़्त उठा रहा था । वो देश जो आजकल उलझा हुआ है भूमि अधिग्रहण,चर्च की सुरक्षा, भ्रष्टाचार से देश को बचाने की साँस भरती पार्टी की चूहा बिल्ली वाली लड़ाई, मौसम की मार सहते किसानों की आत्महत्याओं,क्रिकेट विश्व कप के दुःख से उभरते लोगों में, सफाई कर्मियों की तनख्वाह की लड़ाई और भी बहुत कुछ में । जब सब बेखबर है तो वो क्यूँ इन उलझनों के तेज तर्रार मांझे को सुलझाए ।ये देश इसी तरह उलझा रहेगा इन लड़ाइयों में ,यही तो देखा है आजादी के बाद इस देश ने। यहाँ लोग भूल जाते है किसी गरीब का दर्द और लम्बे समय तक याद रखते है टेलीविज़न पर आये किसी सीरियल की दुखद कड़ी को। खैर सही भी है लड़ता रहे ये देश जाति ,धर्म, रुतबे और फलाँ फलाँ लड़ाइयां। वैसे भी लोग भूल जाएगे सब क्योंकि आईपीएल जो आने वाला है। तुम कोशिश करते रहो बस उम्मींदों की पतंग उड़ानें की।
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